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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १८० कला न आई। उसे बिलकुल मन्दबुद्धि देखकर अध्यापक ने भी उसकी उपेक्षा करदी | जब दोनों जने युवाघस्था के सन्मुख होने लगे तब उनके पिताने स्वयं रुद्धिपात्र होनेसे बड़े आडम्बर सहित उनकी शादी करा दी, और आगे इनमें परस्पर लड़ाई होनेका कारण न रहे इसलिए उन्हें बारह २ करोड सुवर्ण मोहरें बाँटकर जुदे २ घर में रखा । अन्तमें उन्हें सर्व प्रकार की ऋद्धि सिद्धि यथायोग्य सोंपकर धनावह और धनवती दोनोंने दीक्षा लेकर अपने आत्माका उद्धार किया । अब कसार उसके सगे सम्बन्धियोंसे निवारण करते हुये भी ऐसे कुव्यापार करता है कि जिससे उसे अन्तमें धन हानि ही होती है। ऐसा करनेसे थोड़े ही समयमें उसके पिताके दिये हुए बारह करोड़ सौय्ये सफा होगये । पुण्यसारका धन भी उसके घरमें डाका डाल कर सब चोरोंने हडप कर लिया । अन्तमें दोनों भाई एक सरीखे दरिद्री हुए। अव वे सगे सम्बन्धियों में भी विल्कुल साधारण गिने जाने लगे । स्त्रियां भी घर में भूखी मरने लगीं। इससे उनके पिहरियोंने उन्हे अपने घर पर बुला लिया। नीति शास्त्र में कहा है कि: लिम्पिणो णवन्तस्स सथणन्तणं पयासेई ॥ श्रासन्नबन्धवेणवि । लज्जिज्जई खीण विहवेा ॥ १ ॥ I यदि धनवन्त सगा न भी हो तथापि लोग उसे खींच तान कर अपना सगा सम्बन्धी बतलाते हैं और यदि दरिद्री, खास सगा सम्बन्धी भी हो तथापि लोग उसे देखकर लज्जा पाते हैं। गुणवपि निगुणाच्चित्र | गणिज्जए परिषेण गय विहवो ॥ दख्खन्ताइ गुणेहिं । श्रलिएहिं विम्झिए सधणे ॥ २ ॥ दास, दासी, नौकर सरीखे भी गुणवन्त निर्धनको सचमुच निर्गुण गिनते हैं, और यदि धनवान निर्गुण हो तथापि उसमें गुणों का आरोप करके भी उसे गुणवान कहते हैं। अब लोगोंने उन दोनोंके निर्बुद्धि और निर्भाग्य शेखर ये नाम रक्खे। इससे वे विचारे लजातुर हो परदेश चले गये। वहां भी दूसरे कुछ व्यापारका उपाय न लगनेसे जुदे २ किसी साहूकार के घर नौकर रहे। जिसके घर कर्मसार रहा है वह झूठा व्यापारी तथा लोभी होनेसे उसे महीना पूरा होने पर भी वेतन न देता था। आजकल करते हुये उसने मात्र खाने जितना ही देकर उसे उगता रहता । इस तरह करते हुये उसे के वर्ष बीत गये तथापि उसे कुछ भी धन न मिला । पुण्यसारने कुछ पैदा किया, परन्तु उसे एक धूर्त मिला जो उसका कमाया हुवा सब धन ले गया। इस तरह बहुत जगह नौकरी की, कीमयागरी की, रत्नखानकी तलास की, सिद्ध पुरुषसे मिलकर उसके साधक बने, रोहणाचल पर्वत पर गये, मन्त्र तन्त्रोंकी साधना की, रौद्रवन्ती औषधी भी प्राप्त की, इत्यादि कारणोंसे ग्यारह बार बहुतसे उद्यमसे यत्किचित् द्रव्य कमा कमा कर किसी वक्त कुबुद्धिसे, किसी समय ठग मिलने से, किसी वक्त चोरी में गमानेसे, या विपरीत कार्य हो जानेसे कर्मकारने जो कुछ मिला था सो खो दिया । इतना ही नहीं परन्तु उसने जो २ काम किया उसमें अन्तमें उसे दुःख ही सहन करना पड़ा। पुण्यसारने ग्यारह दफ़ा अच्छी तरह द्रव्य पैदा किया परन्तु किसी वक्त प्रमादसे, किसी समय दुर्बुद्धिसे उसने भी अपना
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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