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________________ १७१ श्राद्धविधि प्रकरण __ "स्थापनाचार्यकी आशातना" . स्थापनाचार्य की आशातना भी तीन प्रकारकी हैं ? जहां स्थापन किया हो वहांसे चलाना, वस्त्रस्पर्श या अंगस्पर्श या परका स्पश करना यह जघन्य आशातना गिनी जाती हैं । २ भूमि पर गिराना, बेपर्वाई से रखना, अवगणना करना वगैरहसे मध्यम आशातना समझना । ३ स्थापनाचार्य को गुम कर देवे या तोड़ डाले तो उत्कृष्ट आशातना समझना। इसी प्रकार ज्ञानके उपकरण के समान दर्शन, चारित्रके उपकरणकी आशातना भी वर्जना। जैसे कि रजोहरण ( ओघा ) मुखपट्टी, दंडा, आदि भी 'अहवानाणा इति अं' अथवा ज्ञानादिक तीनके उपकरण भी स्थापनाचार्य के स्थानमें स्थापन किये जा सकते हैं । इस बचनसे यदि अधिक रख्खे तो आशातना होती है। इसलिए यथायोग्य ही रखना । एवं जहां तहां रखड़ता न रखना। क्योंकि रखड़ता हुवा रखनेसे आशातना लगती है और फिर उसकी आलोचना लेनी पड़ती है। इसलिए महानिषीथ सूत्र में कहा है कि,-"अवि हिए निन सणुतरिम रथहरणं दंडगं वा परिभुजे चउथ्य" यदि अविधिसे ऊपर ओढ़नेका कपड़ा रजोहरण, दण्डा, उपयोग में ले तो एक उपवास की आलोयण आती है" इसलिए श्रावक को चला मुह पती वगैरह विधि पूर्वक ही उपयोग में लेना चाहिये । और उपयोग में लेकर फिर योग्य स्थान पर रखना चाहिये। यदि अविधि से बर्गे या जहाँ तहाँ रखड़ता रक्खे तो चारित्रके उपकरण की अबगणना करी कही जाय, और इससे आशातना आदि दोषकी उत्पत्ति होती है, इसलिए विवेक पूर्वक विचार करके उपयोग में लेना। "उतसूत्रभाषण आशातना" आशातना के विषयमें उत्सूत्र (सूत्रमें कहे हुये आशयसे विपरीत ) भाषण करनेसे अरिहन्त की या गुरुकी अवगणना करना ये बड़ी आशातनायें अनन्त संसारका हेतु है। जैसे कि उत्सूत्र प्ररूपण से सावद्यावार्य, मरीचि जमाली, कुलवालुक, साधु, वगैरह बहुतसे प्राणी अनन्त संसारी हुए हैं। कहा है कि उत्सूत्र भासगाणं । वोहिनासो अणंत संसारो॥ पाणचए विधिए । उस्सु ता न भासन्ति ॥ १॥ तिथ्यपर पवयण सू। आयरिगं गणहर महढ्ढी। आसायन्तो वहुसो । अणंत संसारिश्रो होई ॥२॥ उत्सूत्र भाषकके बोधि बीजका नाश होता है और अनन्त संसारकी बृद्धि होती है, इसलिए प्राण जाते हुए भी धीर पुरुष सूत्रसे विपरीत वचन नहीं बोलते । तीर्थंकर प्रवचन और जैनशासन, शान, आचार्य, गणधर, उपाध्याय, ज्ञानाधिक से महर्द्धिक साधु इन्होंकी आशातना करनेसे प्राणी प्रायः अनन्त संसारी होता है। देवव्यादि विनाश करनेसे या उपेक्षा करनेसे भयंकर आशातना लगती हैं सो बतलाते हैं। इसी तरह देवद्रव्य, शानद्रव्य, साधारण द्रव्य तथा गुरुद्रव्यका नाश करनेसे या उसकी उपेक्षा करनेसे भी बड़ी आशातना होती है। जिसके लिए कहा है कि:
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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