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________________ १७२ श्राद्धविधि प्रकरण चेइन दवविणासे । इसिघाण पक्यणस्सउड्डाहे ॥ संजई चउथ्यभंगे। मूलग्गी वोहिलाभस्स ॥ देव-द्रव्यका विनाश करे, साधुका घात करे, जेनशासन की निन्दा करावे, साध्वीका चतुर्थ व्रतभंग करावे तो उसके वोधिलाभ (धर्मकी प्राप्ति ) रूप, मूलमें अग्नि लगता है । ( ऊपरके चार काम करनेवाले को आगामि भवमें धर्मकी प्राप्ति नहीं होती) देवद्रव्यादि का नाश भक्षण करनेसे या अवगणना करनेसे सम. झना । श्रावक दिनकृत्य और दर्शनशुद्धि प्रकरण में कहा है: चेइन दव्वं साहारणं च । जो दुइइ मोहिन भइओ॥ धम्मं सो न याणाइ । महवा बद्धाउनओ नरए॥ चैत्यद्रव्य, साधारण द्रव्यका जो मूर्खमति विनाश करता है वह धर्म न पाये अथवा नरकके आयुका बन्ध करता है। इसी प्रकार साधारण द्रव्यका भी रक्षण करना। उसके लक्षण इस प्रकार समझना चाहिये। देव द्रव्य तो प्रसिद्ध ही है परन्तु साधारण द्रव्य, मन्दिर, पुस्तक निर्धन श्रावक वगैरहका उद्धार करनेके योग्य द्रव्य जो रिद्धिवन्त श्रावकोंने मिलकर इकट्ठा किया हो उसका विनाश करना, उसे व्याज पर दिये हुये या व्यापार करनेको दिये हुएका उपयोग करना वह साधारण द्रव्यका विनाश किया कहा जाता है। कहा है कि: चेइन दव्व विणासे। तहव्व विणासणे दुविहभेए॥ साइनो विख्खमाणो। अणंत संसारियो होई ॥ जिसके दो २ प्रकारके भेदकी कल्पना की जाती है ऐसे देव द्रव्यका नाश होता देख यदि साधु भी उपेक्षा करे तो अनन्त संसारी होता है । यहां पर देव-द्रव्यके दो २ भेदकी कल्पना किस तरह करना सो बतलाते हैं । देवद्रव्य काष्ट पाषाण, ईट, नलिये वगैरह जो हो (जो देवद्रव्य कहाता हो) उसका विनाश, उसके भी दो भेद होते हैं । एक योग्य और दूसरा अतीतभाव । योग्य वह जो नया लाया हुवा हो, और अतीतभाव वह जो मन्दिरमें लगाया हुवा हो। उसके भी मूल और उत्तर नामके दो भेद हैं । मूल वह जो थंब कुम्बी वगरह है। उत्तर वह जो छाज नलिया वगैरह हैं, उसके भी स्वपक्ष और परपक्ष नामके दो भेद हैं। स्वपक्ष वह कि, जो श्रावकादिकों से किया हुवा विनाश है, और परपक्ष मिथ्यात्वी वगैरहसे किया हुवा विनाश । ऐसे देवद्रव्यके भेदकी कल्पना अनेक प्रकारकी होती है। उपरोक्त गाथामें अपि शब्द ग्रहण किया है, इससे श्रावक भा ग्रहण करना, याने श्रावक या साधु यदि देवद्रव्य का विनाश होते उपेक्षा करे तो वह अनन्त संसारी होता है। __यदि यहांपर कोई ऐसा पूछे कि, मन, बचन, कायसे; सावध करना, कराना, अनुमोदना करना भी जिसे त्याग है ऐसे साधुओंको देव द्रव्यकी रक्षा किस लिये करनी चाहिये ? (क्या देवद्रव्य की रक्षा करते हुए साधुको पाप न लगे ?) उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि, यदि साधु किसी राजा, दीवान, सेठ, प्रमु.
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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