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________________ १५७ श्राद्धविधि प्रकरण और उसका वर्णन करके कहा कि, यह उत्तम जातिका कमल अत्यन्त दुष्प्राप्य है। यह सुनकर राजा भी बोलने लगा कि, जिसके चरणकमल में मैं भ्रमरके समान हो रहा हूं ऐसे सद्गुरु यदि इस समय आ पधारें तो यह कमल मैं उन्हें समर्पण करू', क्योंकि ऐसे उत्तम पदार्थसे ऐसे पुरुषोंकी सेवा की हो तो वह अत्यन्त लाभ कारक होती है । परन्तु ऐसे सद्गुरुका योग खाति नक्षत्रकी बृष्टिके समान अत्यन्त दुष्कर और स्वल्प ही होता है । जबतक यह कमल अम्लान है यदि उतनेमें वैसे सदगुरुका योग बन जाय तो सौना और सुगन्ध के समान कैसा लाभ कारक हो जाय ! राजा दीवानके साथ जब यह बात कर रहा है उस समय आकाशमार्गसे जाज्वल्यमान सूर्यमंडलके समान तेजस्वी चारणर्षि मुनिराज वहाँ पर अवतरे । अहो ! आश्चर्य ! इच्छाकरनेवाले की सफलता को देखो! जिसकी मनमें धारना की वही सामने आ खडे हुये। प्रथम मुनिराज का बहूमान किये बाद आसन प्रदान कर राजा आदिने उन्हें बन्दना की तदनन्तर सर्व लोगोंके समुदाय के बीच मानो अपने हर्णके पुंज समान अत्यन्त परिमलसे सर्वसभा को प्रमुदित करता हुवा राजाने वह सहस्र पंखडीका कमल मुनिराजको भेट किया। मुनिराजने उसे देखकर कहा कि- "हे राजेन्द्र ! इस जगतके तमाम पदार्थ तरतम भावयुक्त होते हैं, किसीसे कोई एक अधिक होता ही है। जब आप मुझे अधिक गुणवन्त जानकर यह अत्युत्तम कमल भेट करते हो तब फिर मेरेसे भी जो अलौकिक और आत्यंतिक गुणवन्त हों उन्हें क्यों नहीं यह भेट करते ? जो २ अत्युत्तम पदार्थ हो वह अत्युत्तम पुरुषको ही भेट किया जाता है । इसलिए ऐसा अति मनोहर कमल आप देवाधिदेव पर चढ़ा कर मुझसे भी अधिक फलकी प्राप्ति कर सकोगे। मुझे भेट करने से जितना आपका चित्त शांत होता है उससे विश्वके नायक जिनराजको चढ़ानेसे अत्यन्त अधिकतर आप विश्रांति पावोगे। तीन जगतमें अत्युत्तम कामधेनुसमान मनोवांछित देनेवाली सारे विश्वमें एक ही श्री वीत. रागकी पूजा विना अन्य कोई नहीं। मुनिके पूर्वोक्त वाक्यसे मुदित हो भद्रक प्रकृतिवाला राजा भावसहित जिनमन्दिर जाकर जिनराज की पूजामें प्रवृत्तमान होता है, उस समय धन्ना भी स्नान करके वहीं आया हुवा है। उस कमलको मुख्य लानेवाला धन्ना है यह जानकर राजाने वह प्रभुपर चढ़ानेके लिये धन्नाको दिया। इससे अत्यन्त बहुमान पूर्वक वह कमल प्रभुके मस्तक पर रहे हुए मुकुट पर चढ़ानेसे साक्षात् सहस्र किरणकी किरणोंके समान झलकता हुवा प्रभुके मस्तकपर छत्र समान शोभने लगा। यह देख धन्ना वगैरहने एकाग्र वित्तसे प्रभुका ध्यान किया । जब एकाग्रचित्त से धन्ना प्रभुके ध्यानमें लीन होकर खड़ा है तब रास्तेमें मिली हुई वे मालीकी चार कन्यायें भी जो प्रभुके मन्दिरमें फूल बेचनेको आई थीं, प्रभुके मस्तकपर उस कमलको चढ़ा देख अत्यन्त प्रमुदित हो विचारने लगी कि, सचमुच यह कमल धन्नाने ही चढ़ाया हुवा मालूम होता है। हमने जो धन्नाके पास रास्तेमें कमल देखा था यह वही कमल है। यह धारणा कर कितनी एक अनुमोदना करके मानो संपत्तिके बीज समान उन्होंने कितनेएक फूल प्रसन्नता पूर्वक अपनी तरफसे चढ़ानेके लिये दिये। पुण्ये पापे पाठे । दानादानादनान्यमानादौ ॥ देवगृहादि कृत्ये । ष्वपि प्रवृत्तिहि दर्शनता॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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