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________________ १५८ श्राद्धविधि प्रकरण ___ पुण्यके कार्यमें, पापके कार्यमें, देनेमें, लेनेमें, खानेमें, दूसरेको मान देनेमें, मन्दिर आदिकी करणीमें, इतने कार्यों में जो प्रवृत्ति की जाती है सो देखादेखीसे होती है। . यदि धन्नाने कमलसे पूजा की तो हम भी हमारे फूलोंसे पूजा क्यों न करें ! इस धारणासे अपने कितने एक फूलोंसे दूसरेके पास पूजा कराकर उन लड़कियोंने अनुमोदना की। तदनन्तर अपनी आत्माको कृतकृत्य मानते हुए वे चारों मालोकी कन्यायें और धन्नाजी अपने २ मकान पर चले गये; उस दिनसे उससे बन सके तब धन्ना मन्दिर दर्शन करने आने लगा। वह एक दिन विचारने लगा कि धिक्कार है मुझे कि जिसे प्रतिदिन जिनदर्शन करनेका भी नियम नहीं। मैं पशुके समान, रंक और असमर्थ है कि, जिससे इतने नियमसे भी गया ! इस प्रकार प्रतिदिन आत्मनिन्दा करता है । अब राजा, वित्रमति प्रधान, वसुमित्र शेठ, सुमित्र वानोतर, ये सब चारण महर्षिकी वाणीसे श्रावकधर्म प्राप्त कर आराधना करके अन्तमें मृत्यु पाकर सौधर्म देवलोक में देवतापने उत्पन्न हुये । धन्ना भी जिनभक्तिके प्रभावसे महर्दिक देव हुआ, तथा वे चार कन्यायें भी उसी देवलोकमें धन्ना देवके मित्रदेवतया उत्पन्न हुई। राज्यन्धर देव देवलोकसे च्यवकर वैताढ्य पर्वत पर गगनवल्लभ नगरमें इन्द्रसमान ऋद्धिवाला चित्रगति नामक विद्याधर राजा उत्पन्न हुवा। चित्रमति दीवान देवताका जीव चित्रगति राजाका अत्यन्त वल्लभ विचित्रगति नामक पुत्र पैदा हुवा, परन्तु वह पितासे भी अधिक पराक्रमी हुबा । अन्तमें उसने अपने पिताका राज्य ले लेनेकी बुद्धिसे पिताको मार डालने की जाल रची, दो चार दिन में अपनी इच्छानुसार कर डालूगा यह विचार कर वह स्थिर हो रहा । इसी अवसरमें रात्रीके समय राज्यकी गोत्रदेवीने आकर राजासे सर्व बृतान्त कह सुनाया और कहा कि, अब कोई तुम्हारे बचावका उपाय नहीं । यह बात सुनते ही राजा अकस्मात अत्यन्त संभ्रान्त होकर बिचारने लगा कि जब मेरी भाग्यदेवी ही मुझे यह कहती है कि अब तेरे बचावका कोई उपाय नहीं तब फिर मुझे अब दूसरा उपाय ही क्यों करना चाहिये । वस अब मुझे अपने आत्माका ही उद्धार करना योग्य है । इस विचारसे राजा वैराग्यको प्राप्त हुवा । परन्तु अन्त में फिर यह विचार करने लगा-हा हा ! अब मैं क्या करू किसका शरण लूं; मैं किसके पास जाकर मेरा दुःख निवेदन करू? अहा! यह महा अनर्थ हुवा कि इतने दिनतक मैंने अपनी आत्माकी सुगतिके लिए कुछ भी 'सुकृत न किया। इन्हीं विचारों में गहरा उतरते हुए राजाने अपने मस्तक का पंचमुष्ठि लोच कर डाला, जिससे देवताने तत्काल उसे मुनिवेष समर्पण किया; और अब वह द्रव्यभाव चारित्रवन्त पंच महाव्रतधारी हुवा। अकस्मात् बने हुए इस बनावको सुनकर उसके विचित्रगति पुत्रने एवं स्त्री, परिग्रह, राजवर्गि परिवारने राज्य संभालनेकी बहुत प्रार्थना की, परन्तु वह किसी की भी एक न सुनकर संसारसे सम्बन्ध छोड़कर पवनके समान अप्रतिवद्ध बिहारी होकर बिवरने लगा। फिर उसे साधुकी क्रियायें विविध प्रकारके दुष्कर तप तपते हुए अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई । तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद चतुर्थ मनःयर्यव ज्ञान भी उत्पन्न हुवा। अब ज्ञानबलसे सर्व अधिकार जान कर मैं वहीं चित्रगति विद्याधर तपी तुम्हें उपकार हो इसलिए यहां आया हूं। इस विषयमें अभी और भी अधिकार मालूम करनेका रहा है, वह तुम्हें सब सुना रहा हूं। वसुमित्र शेठका जीव देवलोकसे च्यवकर तू राज्यन्धर नामक राजा हुवा है। वसुमित्र शेठका वानोतर
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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