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________________ १३४ श्राद्धविधि प्रकरण हाथसे लेते हुये फिसलकर गिर गया हुवा, जमीनपर पड़ा हुवा, पैर आदि किसी भी अशुचि अंगसे लग गया हुवा, मस्तक पर उठाया हुवा, मलीन वस्त्रमें रक्खा हुवा, नाभिसे नीचे रक्खा हुवा, दुष्ट लोग या हिंसा करनेवाले किसी भी जीवसे स्पर्श किया हुवा, बहुत जगहसे कुचला हुवा, कीड़ोंसे खाया हुवा, इस प्रकारका फूल, फल या पत्र भक्तिवंत प्राणीको भगवंतपर न चढ़ाना चाहिए। एक फूलके दो भाग न करना, कलीको भी छेदन न करना, चंपा या कमलके फूलको यदि द्विधा करे तो उससे भी बड़ा दोष लगता है। गंध धूप, अक्षत, पुष्पमाला, दीप, नैवेद्य, जल और उत्तम फलसे भगवानकी पूजा करना। __शांतिक कार्यमें श्वेत, लाभकारी कार्यमें पीले, शत्रुको जय करनेमें श्याम, मंगल कार्यमें लाल, ऐसे पांच वर्णके वस्त्र प्रसिद्ध कार्यों में धारन करने कहे हैं। एवं पुष्पमाला ऊपर कहे हुये रंगके अनुसार ही उपयोगमें लेना । पंचामृतका अभिषेक करना, घी तथा गुड़का दोया करना, अग्निमें नमक निक्षेप करना, ये शांतिक पौष्टिक कार्यमें उत्तम समझना। फटे हुये, सांधे हुये, छिद्रवाले, लाल रंगवाले, देखनेमें भयंकर ऐसे वस्त्र पहिननेसे दान, पूजा, तप, जप, होम, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि साध्यकृत निष्फल होते हैं । पद्मासन. से या सुखसे बैठा जा सके ऐसे सुखासनसे बैठकर नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि जमाकर वस्त्रसे मुख ढककर मौनतया भगवंतकी पूजा करना उचित है। "इक्कीस प्रकारकी पूजाके नाम" "१ स्नात्रपूजा, २ विलेपनपूजा, ३ आभूषणपूजा, ४ पुष्पपूजा, ५ वासक्षेपपूजा, ६ धूपपूजा, ७ दीपपूजा, ८ फलपूजा, ६ तंदुल-अक्षतपूजा, १० नागरवेलके पानकी पूजा, ११ सुपारीपूजा, १२ नैवेद्यपूजा, १३ जलपूजा, १४ वस्त्रपूजा, १५ चामरपूजा, १६ छत्रपूजा, १७ वाद्यपूजा, १८ गीतपूजा, १६ नाटकपूजा, २० स्तुतिपूजा, २१ भंडारवर्धनपूजा।" ऐसे इक्कीस प्रकारकी जिनराजकी पूजा सुरासुरके समुदायसे की हुई सदैव प्रसिद्ध है। उसे समय २ के योगसे कुमति लोगोंने खंडन की है, परन्तु जिसे जो २ वस्तु प्रिय होती है उसे भावको बृद्धिके लिये पूजामें जोड़ना। एवं ऐशान्यां च देवतागृहम्" ईशान दिशामें देवगृह हो ऐसा विवेकविलासमें कहा है। विवेकविलासमें यह भी कहा है कि,-विषमासनसे वैठकर, पैरों पर बैठ कर, उत्कृष्ठ आसनसे वैठ कर बायां पैर ऊंचा रख कर बायें हाथसे पूजा न करना । सके हुये, जमीन पर पडे हुए जिनकी पंखडियां बिखर गई हों, जो नीच लोगोंसे स्पर्श किए गये हों, जो विक स्वर न हुये हों ऐसे पुष्पोंसे पूजा न करना। कीडे पड़ा हुआ, कीडोंसे खाया हुआ, डंठलसे जुदा पड़ा हुआ, एक दूसरेको लगनेसे बींधा हुआ, सडा हुआ, बासी मकडीका जाला लगा हुआ, नाभीसे स्पर्श किया हुवा, हीन जातिका दुर्गंध वाला, सुगंध रहित, खट्टी गंध वाला, मल मूत्र वाली जमीनमें उत्पन्न हुवा; अन्य किसी पदार्थसे अपवित्र हुवा ऐसे फूल पूजामें सर्वथा वर्जना। विस्तारसे पूजा पढ़ानेके अवसर पर या प्रतिदिन या किसी दिन मंगलके निमित्त, तीन, पांच, सात कुसमांजलि बढ़ाने पूर्वक भगवानकी स्नात्र पूजा पढ़ाना ।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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