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________________ १३५ श्राद्धविधि प्रकरण "स्नात्र पूजा पढानेकी रीति” प्रथम निर्माल्य उतारना, प्रक्षालन करना, संक्षेपसे पूजा करना, आरती मंगल दीपक भरके तैयार कर रखना केशर वासित जलसे भरे हुए कलश सन्मुख स्थापन करना फिर हाथ जोड करः मुक्तालंकारविकार, सारसौम्यत्वकांतिकमनीयं ॥ सहजनिजरूपं विनिजित, जगत्रयं पातु जिनविम्ब ॥१॥ "जिसने विभाव दशाके ( सांसारिक अवस्थाके ) अलंकार और क्रोधादिक विकार त्याग किये हैं इसी कारण जो सार और सम्यक्त्व, सर्व जगजंतुको, वल्लभता; कांतियुक्त शमतामय मुद्रासे मनोहर एवं स्वभावदशा रूप केवलज्ञानसे निरावरण तीन जगतके काम क्रोधादिक दूषणोंको जीतनेवाले जिनबिंब पवित्र करो" ! ऐसा कहकर अलंकार आभूषण उतारना इसके बाद हाथ जोडकर: अवणिम कुसुमाहरणं, पयइ पइट्ठीय मणोहरच्छायं ॥ जिणरूव मज्जणपीठ, संठिनं वो सिवं दिसमो॥२॥ "जिसके कुसुम और आभूगण उतार लिए हैं, और जिसकी सहज स्वभाव से भव्य जीवोंके मनको हरन करनेवाली मनोहर शोभा प्रगट हुई है इसप्रकार का स्नान करने की चौकी पर विराजमान वीतरागका स्वरूप तुम्हें मोक्ष दे ऐसा कहकर निर्माल्य उतारना फिर प्रथमसे तैयार किया हुवा कलश करना, अंगलूहन करके संक्षिप्तसे पूजा करना । फिर निर्मल जलसे धोए हुए और धूपसे धूपित कलशमें स्नात्र करनेके योग्य सुगंधी जल भरके उन कलशोंको श्रेणिवद्ध प्रभुके सन्मुख शुद्ध निर्मल वस्त्रसे ढककर पाटले पर स्थापन करना । फिर अपने निमित्तका चंदन हाथमें लेकर तिलक करके हाथ धो अपने निमित्तके चंदनसे हाथ विलेपित कर हाथ कंकण बांध कर हाथको धूपित कर श्रेणिबद्ध स्नात्र करनेवाले श्रावक कुसुमांजलि (केशरसे वासित छूटे फूल) भरी रकेबी हाथमें ले खडा रहकर कुसुमांजलीका पाठ उच्चारण करे: सयवत्त कुन्द मालइ । बहु विह कुसमाई पञ्चवन्नाई॥ जिण नाह न्हवनकाले । दिति सुरा कुसुमांजली हिट्ठा ॥३॥ "सेवंती, मचकुन्द, मालती, वगैरह पंचवर्ण बहुत से प्रकारके फूलोंकी कुसुमांजलि स्नात्रके अवसर पर देवाधिदेवको हर्षित हो देवता समर्पण करते हैं"। ऐसा कह कर परमात्माके मस्तक पर फूल चढ़ाना। ___ गंधाय ठिठम महुयर । मणहर मझन्कार सद्द संगीना॥ जिण चलणो वारि मुक्का । हरओ तुम्ह कुसमजलि दुरअं ॥४॥ सुगंधके लोभसे आकर्षित हो आए हुए भ्रमरोंके झळकार शब्दसे गायनसे जिनेश्वर भगवंतके चरण पर रक्खी हुई कुसुमांजली तुम्हारे पापको दूर करे।" ऐसे यह गाथा पढ़ कर प्रभुके चरण कमलोंमें हर एक श्राबक कुसुमांजली प्रक्षेप करे । इस प्रकार कुसुमांजलीसे तिलक, धूप पान आदिका आडंबर करना। फिर मधुर और उच्च खरसे जो जिनेश्वर पधराये हों उनके नामका जन्माभिषेकके कलशका पाठ बोलना। फिर घी,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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