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________________ namammmmmmmmmmmmmm. श्राद्धविधि प्रकरण मूलनायकी प्रतिमाजी विशेष करके प्रशान्त मुद्रा वाली होती हैं। इससे शीघ्र ही बोध किया जा सकता है। ( इसलिए प्रथम मूलनायककी ही पूजा करना योग्य है ) इसी कारण मन्दिर या मंदिरोंकी प्रतिमा देश कालकी अपेक्षा ज्यों बने त्यों यथाशक्ति, अतिशय विशेष सुन्दर आकार वाली ही बनबाना । ___घर मन्दिरमें तो पीतल, तांबा, चांदि, आदिके जिन घर (सिंहासन ) अभी भी कराये जा सकते हैं। परन्तु ऐसा न बन सके तो हाथीदांतके या आरसपान के अतिशोभायमान दीख पड़ें ऐसी कोरणी या चित्र. कारी युक्त कराना, यदि ऐसा भी न बन सके तो पीतलकी जाली पट्टीवाले हिंद लोक प्रमुख चित्रित रंग चित्रसे अत्यन्त शोभायमान अत्युत्तम काष्ठका भी करवाना चाहिये। एवं मन्दिर तथा घरमन्दिरको साफ सूफ करा कर रंग रोगन चित्र युक्त, सुशोभनीय कराना । तथा मूलनायक या अन्य जिनके जन्मादिक कल्याणक या विशिष्ट पूजा रचना प्रमुख कराना। पूजाके उपकरण स्वच्छ रखना एवं पडदा, चन्द्रवा पुठिया आदि हमेशा या महोत्सवादिके प्रसंग पर बांधना कि जिससे विशिष्ट शोभामें वृद्धि हो। घरमन्दिर पर अपने पहननेके कपड़े धोती वगैरह वस्त्र न सुखाना । बड़े; मन्दिरके समान घर मन्दिरकी भी चौरासी आसातनायें दूर करना । पीतल पाषाणकी प्रतिमाओंका अभिषेक किये बाद एक अंगलुहणसे पूछन किये बाद (निर्जल किये बाद ) भी दूसरी दफां कोरे स्वच्छ अंगलहणले सर्व प्रतिमाओंको लुंछन करना, ऐसा करनेसे तमाम प्रतिमायें उज्वल रहती हैं। जहांपर जरा भी पानी सहजाता है तो प्रतिमाको श्यामता लग जाती है। इसलिये सर्वथा निर्जल करके ही केशर, और चंदनसे पूजा करना। - यह धारणा ही न करना कि चौबीसी और पंचतीर्थी प्रतिमाओंके स्नान करते समय स्नान जलको अरस परस स्पर्श होनेसे कुछ दोष लगता है, क्योंकि यदि ऐसे दोष लगता हो तो चौवीसी गटामें या पंचतीर्थीमें ऊपर व नीचेकी प्रतिमाओंका अभिषेक करते समय एक दूसरेके जलका स्पर्श जरूर होता है। रायपसेणि सूत्रमें कहा है कि रायप्पसेणइज्जे, सोहम्मे सुरियाभदेवस्स) जोवाभिगविजया, पूरीम विजयाई देवाणं ॥१॥ भिंगार लोमहथ्यय, लूहया धूव दहण माइग्रं, पडिमाण सकहाणाय पाए इक्वयं भणियं ॥२॥ निव्युम जिणांद सकहा, सग्ग समुग्गेसु तिसु क्लिोएसु, अन्नोनं संलग्गा, नवण। जलाई हि संपुट्ठा ॥३॥ पबधर काल चिहिया पडिलाइ संति केसुविपरेस, वत्तख्खा खेतख्खा, महरूखया गंथ दिट्ठाय ॥४॥ मालाधराइआणवि, श्रवण जलाई पुसेइ, जिणविम्बे, पुथ्वय पत्ताइणबि, उवरूवरि फरिसणाइन ॥॥५॥ ता नजइ नादोषो करणे चउब्बिस वट्टयाइण,
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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