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________________ Annnwwnnn AAAAA श्राद्धविधि प्रकरण '१२३ बंदन प्रभावलि, ठीयणेस एगस्स वरिमाणेसु, पासायणा नदिठा, उचिय पवत्तस्स पुरिसस्स ॥६॥ जह पिम्पय पडिमाणं, पूना पुफ्फा इशाहिं खलु उचिमा, कणगाइ निम्पियाणं उचियतया मज्जणाइवि ॥७॥ कल्लाणगाइ कज्जा एगस्स विसेज पूष करणेवि, नावना परिणामो, जह धम्मि जणस्स सेसेसु ॥८॥ उचिम पवित्ती एवं,जहा कुणंतस्स होइ नावन्ना, तह मूल विम्व पूाविसेस करणिवितं नथ्थि ॥६॥ जिणभवण विव पूना, कोरन्ति जिणाण नोकर किन्तु ॥ सुह भावणा निमित्त वुद्धाण इयराण बोहथ्थं ॥१०॥ चेइ हरेण केइ, पसंत रूवेण केइ विम्बेण, पूयाइ सया अन्ने अन्ने बुझझन्ति उदएसा ॥ ११ ॥ मूलनायक और दूसरे जिनबिम्ब ये सब तोर्थंकर देखनेमें एक सरीखे ही हैं, इसलिए बुद्धिमान मनुष्यको उनमें स्वामी, सेवक भावकी बुद्धि होती ही नहीं। नायक भावसे सब तीर्थकर समान होने पर भी स्थापन करते समय ऐसी कल्पना की है कि, इस अमुक तीर्थंकरको मूलनायक बनाना। बस इसी व्यवहारसे मूल नायककी प्रथम पूजा की जाती है, परन्तु दूसरे तीर्थंकरोंकी अवज्ञा करनेकी बुद्धि विलकुल नहीं है। एक तीर्थकरके पास वंदना, स्तवना पूजा करनेसे या नैवेद्य चढानेसे भी उचित प्रवृत्तिमें प्रवर्तते हुये, पुरुषों की कोई आसातना झानिओंने नहीं देखी। जैसे मिट्टीकी प्रतिमाकी पूजा अक्षत, पुष्पादिकसे करनी उचित समझी है । परन्तु जल चन्दनादिसे करनी उचित नहीं समझी जाती और सुवर्ण चांदी, आदि धातुकी या रत्न पाषाणकी प्रतिमाकी पूजा, जल, चंदन, पुष्पादिसे करनी समुचित गिनी जाती है। उसी प्रकार मूलनायकको प्रतिमाकी प्रथम पूजा, करनी समुचित गिनी जाती है। जैसे धर्मवान् मनुष्योंकी पूजा करते समय दूसरे लोगोंका आना जाना नहीं किया जाता वैसे ही जिस भगवान्का जिस दिन कल्याण हो उस दिन उस भगवानकी विशेष पूजा करनेसे दूसरी तीर्थंकर प्रतिमाओंका अपमान नहीं होता। क्योंकि दूसरोंकी आशातना करनेका परिणाम नहीं है। उचित प्रवृत्ति करते हुए दूसरोंका अपमान नहीं गिना जाता। वैसे ही मूल नायककी विशेष पूजा करनेसे दूसरे जिन विम्बोंकी अवज्ञा या आसातना नहीं होती। ____जो भगवानके मन्दिर या बिम्बकी पूजा करता है वह उन्हींके लिए परन्तु शुभ भावनाके लिये ही करता है। जिन भवन आदि निमित्तसे आत्माका उपादान याद आता है। एवं अबोध जीवको बोधकी प्राप्ति होती है तथा कितने एक मन्दिरकी सुन्दर रचना देख ज्ञान प्राप्त करते हैं। कितने एक जिनेश्वरकी प्रशान्त मुद्रा देख बोधको प्राप्त होते हैं। कितने एक पूजा आदि आंगीका महिमा देख और स्तवादि स्तवनेसे एवं कितने एक उपदेशकी प्रेरणासे प्रतिबोध पाते हैं। सर्व प्रतिमायें एक जैसी प्रशान्त मुद्रावाली नहीं होतीं परन्तु
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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