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________________ MARA श्राद्धविधि प्रकरण प्रायरमा जुतीनो, गंथेसु मंदिस्स माणता ॥६॥ __ रायपसेणी सूत्रमें सूर्याभि देवका अधिकार है और जीवाभिगम सूत्र तथा जम्बूद्वीपपणत्ती सूत्रमें विजया पुरी राजधानी पोलिया देवका और विजयादिक. देवताका अधिकार है। वहां अनेक कलश, मयूरपिच्छी अंगलुहन धूपदान वगैरह उपकरण सर्व जिन प्रतिमा और सर्व जिनकी दाढाओंकी पूजा करनेके लिए बतलाए हुये हैं। मोक्ष जिनेश्वरोंकी दाढा इन्द्र लेकर देव लोकमें रहे हुये शिक्कामें डब्बोंमें तथा तीन लोकमें जहां २ जिनकी दाढायें हैं वे सब उपरा उपरी रक्खी जाती हैं। वे एक दूसरेसे परस्पर संलग्न हैं। उन्हें एक दूसरेके जलादिकका स्पर्श अंगलहुणेका स्पर्श एक दूसरेको हुये बाद होता है। (ऊपरकी दाढाको स्पर्शा हुवा पानी नीचेकी दाढाको लगता है) पूर्वधर आचार्योंने पूर्व कालमें प्रतिष्ठा की है ऐसी प्रतिमायें कितने एक गांव, नगर और तीर्थादिकमें हैं। उसमें कितनी एक एक ही अरिहंतकी और दूसरी क्षेत्रा (एक पाषाण . या धातुमय पट्टक पर चोविस प्रतिमा भरतक्षेत्र ऐरावत क्षेत्रकी प्रतिमायें की हों वे ) नामसे, तथा महरूल्या ( उत्कृष्ट कालके अपेक्षा एकसो सत्तर प्रतिमायें एक ही पट्टक पर की हो सो ) नामसे, ऐसे तीनों प्रकारकी प्रतिमायें प्रसिद्ध ही हैं। तथा पंचतीर्थी प्रतिमाओंमें फूलकी वृष्टी करने वाले मालाधर देवताके रूप किये हुए होते हैं, उन प्रतिमाओंका अभिषेक करते समय मालाधर देवताको स्पर्श करने वाला पानी जिनबिम्ब पर पड़ता है। पुस्तकमें जो चित्रित प्रतिमा होती है वह भी एकेक पर रहती है। चित्रित प्रतिमायें भी एक एकके ऊपर रहती हैं (तथा बहुतसे घर मन्दिरों में एक गंभारे पर दूसरा गभारा भी होता है उसकी प्रतिमायें एकेकके ऊपर होती हैं ) तथा पुस्तकमें पन्ने ऊपरा ऊपरी रहते हैं, परस्पर संलग्न होते हैं उसका भी दोष लगना चाहिए, परन्तु वैसे कुछ दोष नहीं लगता। इसलिए मालाधर देवको स्पर्श कर पानी जिनबिम्ब पर पड़े तो उसमें कुछ दोष नहीं लगता, ऐसे ही चौवीस गट्टामें भी ऊपरके जिनबिम्बको स्पर्श करके ही पानी नीचेके जिनबिम्बको स्पर्श करता है, उसमें कुछ पूजा करने वाले या प्रतिमा भराने वालेको निर्माल्यता आदिका दोष नहीं लगता। इसप्रकारका आचरण और युक्तिये शास्त्रोंमें मालूम होती हैं, इसलिए मलनायक प्रतिमाकी पूजा दूसरे विम्बोंसे पहले करनेमें कुछ भी दोष नहीं लगता और स्वामी सेवक भाव भी नहीं गिना जाता। बृहद् भाष्यमें भी कहा है। कि 'जिरिदि देसण, एक कारेइ कोइ भक्तिजुओ ॥ पायडिन पाडिहरं देवागम सोहियं चेव ॥१॥ दसण णाणं चरिता, राहण कज्जे जिणत्ति कोइ ॥ परमेट्टी नमोकार, उज्जमिउ कोइ पंचजिणे ।। २ ॥ कल्लाणाय तवमहवा, उज्जमिऊ भैरहवास भांवीति ॥ वहुमा विसेसाओ, केइ कारेइ चउव्वीसं ॥३॥ उकोस सत्तरि सयं, नस्लोए विरइति भत्तिए। सत्तरिसयं वि कोइ विम्बाण कारइ धसाढ्ढो ॥४॥
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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