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________________ श्राद्धविधि प्रकरण में ( हाथीके हौदोंमें ) वैठा कर सबको साथ ले बड़े भारी जुलुसके साथ भगवंत को वंदन करने आया। उस समय उसे अत्यंत अभिमान आया जान कर उसका अभिमान उतारनेके लिये सौधमद्रने श्री वीरप्रभुको वंदन करने आते हुये ऐसी दैविक ऋद्धि की विकूर्वणा-रचना की सो यहां पर वृद्ध ऋषिमंडल स्तोत्र वृत्ति से बतलाते हैं:चउसहिं करि सहस्सा, बणसय वारस्स सिराई पत्तेय; कुभे अडअड दंते, तेसुअवाबोवि अठ्ठ ॥१॥ अट्ठ लख्खपत्ताई, तासु पउमाई हुति पत्तेय; पचे पत्ते बक्षीस, बद्ध नाड्य विहि दिव्यो ।।२।। एगेग करिणाए, पासाय, बडिंसमोन पइपउमं; अग्गपहिर्सिहिं सर्द्धि, उबभिज्जइ सोतहिं सक्को ॥३॥ एयारिस इढिए विल्लग मेरावणंमि दठ हरिःराया दसन्न भद्दो, निख्खंतो पुण्ण सपइम्नो॥४॥ प्रत्येकको पांचसों, बारह, मस्तक ऐसे ६४ हजार हाथी बनायें। उसके एकेक मस्तक पर आठ २ दंतुशल, एकेक दंतुशल पर आठ २ हौद ; एकेक हौद में एक लाख पंखडीवाले आठ २ कमल, और एकेक कमलमें एकेक लाख पंखड़ियाँ रची। उन एकेक पंखडियों पर प्रासादवतंस (महल) की रचना की। उन प्रत्येक महल में बत्तीस बद्ध नाटक के साथ गीत गान हो रहा है। ऐसे नाना प्रकार के आश्चर्यकारक दिखाव से अपनी आठ २ अग्रमहिषियोंके साथ प्रत्येकमें एकेक रूप से ऐरावत हाथी पर बैठा हुवा सौध. मेन्द्र अत्यानंदपूर्वक दिव्य बत्तीसबद्ध नाटक देखता है। इस प्रकार अत्यत रमणीय रचना कर के जब अनेक रूपको धारण करने वाला इन्द्र आकाशसे उतर कर समवसरण के नजीक अपनी अतुल दिव्य ऋद्धि सहित आ कर भगवान को वंदन करने लगा तब यह देख दशार्णभद्र राजाका सारा अभिमान उतर गया । वह इन्द्रकी ऋद्धि देख लज्जासे खिसयाना हो कर विचारने लगा कि, अहो आश्चर्य! ऐसी ऋद्धिके सामने मेरी ऋद्धि किस गिनती में है ! अहा ! मैंने यह व्यर्थ ही अभिमान किया कि जैसी ऋद्धि सिद्धि सहित भगवानको किसीने वंदन न किया हो उस प्रकारके समारोहसे मैं वंदन करूंगा। सचमुच ही मेरा पुरुषाभिमान असत्य है । ऐसे समृद्धिवालों के सामने मैं क्या हिसाब में हूं? यह विचार आते ही उसे तत्काल वैराग्य प्राप्त हुआ और अन्तमें उसने भगबानके पास आकर हाथ जोड़ कर कहा कि, स्वामिन् ! आपका आगमन सुन कर मेरे मनमें ऐसी भक्ति उत्पन्न हुई कि. किसीने भी ऐसी विस्तृत ऋद्धि के साथ भगवान को वंदन न किया हो वैसी बड़ी ऋद्धिके विस्तारसे मैं आपको वंदन करू। ऐसी प्रतिज्ञा करके ऐसे ठाठमाटसे याने जितनी मेरी राजऋद्धि है वह सब साथ ले कर बड़े उत्साह पूर्वक आपके पास आकर, वंदना की थी, इससे मैं कुछ देर पहले ऐसे अभिमान में आया था कि, आज मैंने जिस समृद्धि सहित भगबनको वंदन किया है वेसे समारोहसे अन्य कोई भी वंदन न कर सकेगा परन्तु वह मेरी मान्यता सचमुच बंध्यापुत्र के समान असत्य ही है। इस इंद्रमहाराजने अपनी ऐसी दिव्य अतुल समृद्धिके साथ आ कर आपको वंदन किया। इसकी समृद्धिके सामने मेरी यह तुच्छ ऋद्धि कुछ भी हिसाबमें नहीं; यह दृश्य देख कर मेरे तमाम मानसिक यिचार बदल गये हैं। सचमुच इस असार संसारमें जो २ कषाय हैं वे आत्माको दुःखदायक ही हैं। जब मैंने इतना बड़ा अभिमान किया तब मुझे उसीके कारण इतना खेद करना १५
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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