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________________ श्राद्धविधि प्रकरण पड़ा। यह मेरी राजऋद्धि और यह मेरा परिवार अन्तमें मुझे दुःख का ही कारण मालूम होगा; इसलिये इससे अब मैं बाह्य और आभ्यंतरसे मुक्त होना चाहता हूं, अत: "हे स्वामिन् ! अब मुझे अपनी चरणसेवा दे कर मेरा उद्धार करें।" , भगवन्त बोले-“हे दशार्णभद्र ! यह संसार ऐसा ही है। इसका जो परित्याग करता है. वही अपनी आत्माका उद्धार करता है ; इसलिये यदि तेरा सचमुच ही यह विचार हुआ है तो अब संसारके किसी भी प्रतिबन्धमें प्रतिबन्धित न होना।" राजाने 'तथास्तु' कहकर तत्काल दीक्षा अंगीकार की। यह बनाव देख सौधर्मेन्द्र उठकर दशार्णभद्र राजर्षिको वंदन कर बोला-"सचमुच आपका अभिमान उतारनेके लिये ही मैंने यह मेरी दिव्य शक्तिसे रचना कर आपका अभिमान दूर किया सही परन्तु हे मुनिराज ! आपने जो प्रतिज्ञा की थी वह सत्य ही निकली। क्योंकि, आपने यह प्रतिज्ञा की थी जिस रीतिसे किसीने बन्दन न किया हो उस रीति से करूंगा। तो आप वैसा ही कर सके। आप ने अपनी प्रतिज्ञा सिद्ध ही की। मैं ऐसी ऋद्धि बनाने में समर्थ हूँ परन्तु जैसे आपने बाह्याभ्यंतर परिग्रह का त्याग कर दिया वैसे मैं त्याग करने के लिये समर्थ नहीं हो सकता। अब मैं आप से बढकर कार्य कर या आपके जैसा ही काम कर के आप से आगे निकलने सर्वथा असमर्थ हूं ; इसलिए हे मुनिराज ! धन्य है आपको और धन्य है आपकी प्रतिज्ञा को। समृद्धिवान पुरुषको अपने व्यक्तित्वके अनुसार समारोह से जिन-मंदिर में प्रवेश करना चाहिये। "सामान्य पुरुषोंके लिये जिनमन्दिर जानेका विधि" सामान्य संपदावाले पुरुषोंको विनय नम्र हो कर जिस प्रकार दूसरे लोग हंसी न करें ऐसे अपने कुलाचारके या अपनी संपदाके अनुसार वस्त्राभूषणका आडंवर करके अपने भाई, मित्र, पुत्र, खजन समुदाय को साथ ले जिन मंदिरमें दर्शन करने जाना चाहिये। . "श्रावकके पंचाभिगम" १ पुष्प, तांबुल, सरसवद्रोछुरी, तरवार, आदि सर्व जाति के शस्त्र, मुकुट, पादुका, (पैरों में पहनने के जूते, ) बूट, हाथी, घोड़ा, गाड़ी, वगैरह सचित्त और अचित्त वस्तुयें छोड़ कर (२) मुकुट छोड़ कर बाकी के अन्य सब आभूषण आदि अचित्त द्रव्य को साथ रखता हुवा (३) एक पनेहके वस्त्रका उत्तरासन कर के (४) भगवान् को दृष्टि से देखते ही तत्काल दोनों हाथ जोड़कर जरा मस्तक झुकाते हुए "नमो जिणाणं" ऐसा बोलते हुए, (५) मानसिक एकाग्रता करते हुये (एक वीतरागके स्वरूप में ही या गुणग्राम में तल्लीन बना हुआ ) और पूर्वोक्त पांच प्रकार के अभिगम को पालते हुवे "निःसिही" इस पद को तीन दफा उच्चारण करते हुवे श्रावक जिनमंदिरमें प्रवेश करें। इस विषयमें, आगममें भी यही कहा है कि, १ सचित्ताणं दव्याणं विउसरणयाए, २ अचित्ताणं दवाण अविसरणयाए, ३ एगल्ल साउएण उत्तरासंगेणं, ४ चख्खुफासेणं अजलि पग्गहेणं ५ मणसो एगत्ति करणेणं ( इस पाठका अर्थ ऊपर लिखे मुजब ही है इसलिये पिष्टपेषण नहीं किया जाता।
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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