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________________ श्राद्धविधि प्रकरण फकी शाखाको आश्रय कर स्त्रियोंको प्रवेश करना चाहिये परन्तु मन्दिरके दरवाजे के सन्मुख पहिलो पावडीपर स्त्री या पुरुष को दाहिना ही पग रखकर वढना चाहिये। (यह अनुक्रम स्त्री पुरुषों के लिए समान ही है ) सुगंधि मुधुरः द्रव्योः प्राङमुखो वाप्युदमुखः वामनाड्यां पत्तायां पौनेवान देव पर्चयेव ॥२॥ __ पूर्व दिशा या उत्तर दिशा सन्मुख बैठकर चंद्रनाड़ी चलते हुये सुगन्ध वाले मीठे पदार्थोसे देवपूजा करना । समुच्चयसे इस युक्ति पूर्वक देवपूजा करना सो विधि वतलाते हैं-तीन निःसही चितवना, तीन प्रदक्षिणा फिरना, त्रिकरण, (मन, बचन, शरीर ) शुद्धि करना इस विधिसे शुद्ध पवित्र चौकी आदि पर पद्मासनादिक सुखसे बैठा जासके ऐसे आसनसे बैठकर चन्दनके बर्तनमेंसे दूसरे वरतन ( कचौली) वगैरहमें या हाथकी हथैलीमें चन्दन लेकर मस्तक पर तिलक कर हाथम ककन, या नाडा छड़ी बांध कर हाथकी हथैली चन्दनके रससे विलेपन वाली करके धूपसे धूपित कर फिर भगवंतकी दक्षमाण ( इस पुस्तकमें आगे कही जायगी ) विधि पूर्वक पूजात्रिक) अंगपूजा, अग्रतूजा, भावपूजा,) करके संवरण करे ( यथाशक्ति प्रातःकाल धारण किया हुवा प्रत्याख्यान प्रभुके सन्मुख करे) (यह सब पांचवी मूल गाथाका अर्थ बतलाया) "मूल गाथा" विहिणां जिणं जिणगेहे। मतां मच्चेई उचिय चिंत्तरओ। उच्चरई चच्चवाणं । दृढ पंचाचार गुरुपाशे ॥३॥ विधि पूर्वक जिनेश्वर देवके मंदिर जाकर विधिपूर्वक उचित चितवन करके (मंदिरकी देखरेख करके) विधि पूर्वक जिनेश्वरकी पूजा करे। यह सामान्य अर्थ बतला कर अब विशेष अर्थ बतलाते हैं। "मंदिर जानेका विधि" यदि मंदरि जानेवाला राजा आदि महधिक हो तो "सव्वाए रिद्धिए सव्वाए दित्तिए सव्वाए जुइए सव्वबलेणं सबबलेणं । सर्वसिद्धिसे; सर्व दीप्ति-कान्तिसे, सर्व युक्तिसे, सर्वबलसे, सर्वपराक्रमसे (आगमके ऐसे पाठसे ) जैन शासनका महिमा बढ़ानेके लिये ऋद्धिपूर्वक मंदिर जाय। जैसे दशार्णभद्र राजा श्रीवीतराग वीर प्रभुको वंदन करने गया था उस प्रकार जाय। "दशार्णभद्र राजाका दृष्टांत" दशार्णभद्र राजा ने अभिमान से ऐसा विचार किया था कि, जिस प्रकार किसी ने भी भगवान को वंदन न किया हो वैसी ऋद्धि से मगवानको वंदन करने जाऊ। यह विवार कर वह अपनी सर्व ऋद्धि सहित, अपने सर्व पुरुषोंको यथायोग्य श्रृंगार से सजा कर तथा हर एक हाथि के दंतशूल पर सुवर्ण और चाँदीके जेवर पहना कर चतुरंग सेना सहित अपनी अन्ते उरियोंको सुवर्ण चाँदी की पालखियों या अवारियों
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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