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________________ श्राद्धविधि प्रकरण १११ है मेरे ऊपर बड़ा स्वामी है तभी किया है न ? यह बचन सुनकर राजा बड़ा खुशी हुवा और अपने राज्यमें उसे राज्यधरद्ध ऐसा विरुद्ध देकर बड़ा सन्मानशाली किया । पूजामें दूसरे किसीसे वर्ता हुवा बत्र धारण न करना इस बात पर कुमारपालका दृष्टान्त बतलाया ( इस दृष्टांतका तात्पय यह है कि, पूजाके काम लायक कुमारपालको नया बस्त्र न मिला इससे दूसरे राज्य पर चढाई भेजकर भी नया उत्तम बस्त्र वनाने वाले कारीगरोंको लाकर वह तैयार कराया " पूजाकी द्रव्य सामग्री” अच्छी जमीन में पैदा हुये, अच्छे गुणवान परिचित मनुष्य द्वारा मंगायें हुये, पवित्र वरतनमें भरकर ढक कर लाये हुये, लाने वालेको मार्गमें नीच जातिके साथ स्पर्श न होते हुये बड़ी यतना पूर्वक लाये हुये, लानेवालेको यथार्थ प्रमाणमें मूल्य दे प्रसन्न करके मंगाये हुये, ( किसीको ठगकर या चुराकर लाये हुये फूल पूजामें अयोग्य गिने जाते हैं) फूल पूजाके उपयोगमें लेना । ( अर्थात् ऐसी युक्ति पूर्वक मंगाये हुए फूल भगवानकी पूजामें चढाने योग्य हैं) इस प्रकार पवित्र स्थान पर रख्खा हुवा शुद्ध किया हुवा केशर कपूर, (वरास ) जातिवान चंदन, धूप, गायके घीका दीपक, अखण्ड अक्षत, (समूचे चावल ), तत्कालंके बनाये हुये और जिन्हें चूहे, बिल्ली आदि हिंसक प्राणीने सूंघा या खाया, स्पर्श न किया हो ऐसे पक्वान, आदि नैवेद्य, और मनोहर सुस्वादु मनगमते सचित्त अचित्त वगैरह फल उपयोगमें लेना । इस प्रकार पूजाकी द्रव्य सामग्री तैयार करनी चाहिये । इस तरह सर्व प्रकारसे द्रव्य शुद्धि रखना । 1 " पूजाके लिए भावशुद्धि” पूजा में भावशुद्धि - किसी पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, स्पर्धा, इस लोक परलोकके सुख, यश और कीर्तिकी वांछा, कौतुक, क्रीड़ा, व्यवहार, चपलता, प्रभाद, देखादेखी, वगैरह कितने एक लौकिक प्रवाह दूर करके चित्तकी एकाग्रता, प्रभुभक्ति में रखकर जो पूजा की जाती है उसे भावशुद्धि कहते हैं। जैसे कि शास्त्र में कहा हैः मनोवाक्कायो, पूजोपकरणः स्थितः । शुविधा कार्या श्री श्रईत्पूजमक्षणे ॥ १ ॥ 9 मनकी शुद्धि, वचनकी शुद्धि, शरीरकी शुद्धि, वस्त्रकी शुद्धि, भूमिकी शुद्धि, पूजाके उपकरणक शुद्धि, इस तरह भगवानकी पूजाके समय सात प्रकारकी शुद्धि, करना। ऐसे द्रव्यसे और भावसे शुद्धि करके पवित्र हो मन्दिर में प्रवेश करे । "मंदिर में प्रवेश करनेका कम" श्राश्रयन् दक्षिण शाखां पुमान्म्यो विश्वदक्षिणां; यतः पूर्व प्रविश्यांत, दक्षिणेनांहिंणा ततः ॥ १ ॥ मंदिरकी दाहिनी दिशा की शाखाको आश्रित कर पुरुषोंको मंदिरमें प्रवेश करना चाहिये और बांई तस्
SR No.022088
Book TitleShraddh Vidhi Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTilakvijay
PublisherAatmtilak Granth Society
Publication Year1929
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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