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________________ ६२२ ] अध्यात्मकल्पद्रुम [ चतुर्दश सत्तावन हेतु होते हैं। मिथ्यात्वपर विशेष विवेचन न कर उसके त्याग करनेका ही उपदेश किया गया है, कारण कि इस प्रन्थक अधिकारी बहुधा मिथ्यात्वी हो न हो इसीलिये इसपर विशेष विवेचन न करके योगके महत्त्वपूर्ण विषयको हाथ में लिया गया है । उनमें मनोनिग्रह, वचनानग्रह, कायानिग्रह और अंतरंगमें इन्द्रियदमनके लिये जो विचार प्रगट किये गये हैं वे बहुत ही उपयोगी हैं। मनकी अप्रवृत्ति और मनोनिग्रह इन दोनोंमें बहुत वैमनस्य है। मनके व्यापारोंको छोड देना, उसको कोई कार्य नहीं करने देना और हठयोग करना यह शास्त्रशैलीसे विपरीत है, इससे यथोचित लाभ नहीं होता है। कितने ही प्राणो इस मार्गमें कार्य करके लाभ उठाना चाहते हैं। इससे शारीरिक आरोग्यता या कालज्ञानादि अल्प लाभ होता है, परन्तु प्रयासके परिणाममें कुछ लाभ नहीं होता है। मनके संबंध करने योग्य कार्य यह है कि मन जब कुमार्गमें जाता हो तब उसके परिणामोंका विचार कर उसको पिछा फेरना, कुविचार न करने देना, परन्तु उसकी शुभ प्रवृत्तिपर अंकुश लगानेकी आवश्यकता नहीं है । शुभमें प्रवृत्ति और अशुभमें निवृत्ति यह ही महायोग है और इसीके लिये धर्म शुक्लादि ध्यानका विस्तार है । " मैं कब ३२ दोष रहित पाहार करुंगा ? कब पौद्गलिक भावका त्याग कर आत्मिक तत्त्वमें रमण करुंगा ?" आदि आदि शुभ मनोरथ करने भी प्रशस्त मनोयोगकी आचरणामें ही गिने जाते हैं । इसीप्रकार वचनयोग और काययोग निमित्त समझे । वचन और कायाकी प्रवृतिको सदैव रोकना आवश्यक नहीं है, परन्तु इनके प्रवृत्तिकी रुख बदल देना हमारा मुख्य कर्तव्य है । काययोगके लिये जो इन्द्रिय संवरका उपदेश किया गया है वह भी इतना ही उपयोगी है। यह एक सामान्य नियम
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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