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________________ ४१४] मायामकल्याम योदश श्रीका परिग्रह करे तो वे प्रत्यक्ष दुराचारी हैं। गादीघोड़े रखें, खेत-बगीचे रखें, बड़ी पुकारावे और पधरामणीये करावे उनकी तो सूरिमहाराज बात भी नहीं करते हैं। जैनधर्मका बंधारण अत्युत्तम है, साधु और श्रावकके व्यवहार बहुत विचारपूर्वक बांधे गये हैं, उन्में कितने ही पेटार्थी खराबीकर अपने आपको संसारके अनन्तप्रवाहमें डूबो देते हैं। ज्ञानी भी प्रमादके वशीभूत होजाता है-इसके दो कारण. शास्त्रज्ञोऽपि धृतवतोऽपि गृहिणी पुत्रादिबन्धोज्झितोऽप्यङ्गी यद्यतते प्रमादवशगो न प्रेत्यसौख्यश्रिये । तन्मोहद्विषतत्रिलोकजयिनः काचित्परा दुष्टता, बद्घायुष्कतया स वा नरपशु नूनं गमी दुर्गतौ ॥ १०॥ "शास्त्रको जाननेवाला हो, व्रतको ग्रहण किये हुए हो, तथा स्त्री, पुत्र प्रादिके बन्धनों से मुक्त हो, फिर भी यदि कोई प्राणी प्रमादके वशीभूत होकर पारलौकिक सुखरूप लक्ष्मीके लिये कुछ भी यत्न नहीं करता है तो जानना चाहिये कि या तो इसमें तीनों लोकोंको जीतनेवाले मोहनामक शत्रुकी कोई अकथनीय दुष्टता कारणभूत होनी चाहिये अथवा वह नरपशु आगामी भवके आयुष्यका बन्ध १ दृढ़नतोऽपति पाठः।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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