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________________ ३०४] अध्यात्मकल्पद्रम [नवमां विवेचन-विषयके प्रारम्भ में ही प्रथम श्लोक बहुत अलंकारिक लिखा गया है । प्रारम्भसे मनपर अंकुश न हो तब क्या करना यह यहाँ बताया जाता है। हे चेतन ! तेरी यह धारणा है कि यह मन तो तेरा खुदका ही है, परन्तु यह तो एक धीवरके सदृश" दुष्ट है और यह निश्चय जानना कि यह तेरा कदापि नहीं है। यह तो बड़ी बड़ी जाल बिछायगा और उसमें तुझे फंसानेका प्रयत्न करेगा और पकड़ कर फिर नारकीरूप अग्निमें भूनेगा । ऐसे ऐसे तेरे हालहवाल कर डालेगा; अतः हे जीवरूप मच्छ ! तू तेरे वैरी मनरूप धीवरका विश्वास कदापि न कर । मच्छी बेचारी पौद्गलिक इच्छासे फंस जाती है, उसको धीवरसे फैलाई हुई जालका भान नहीं रहता है । इसीप्रकार यह अज्ञानी जीव भी मन-धीवरकी जाल में चला जाता है, फैंस जाता है और पीछा नहीं निकल सकता है । यह फंसानेवाली . जाल तेरे कुविकल्परूप सूत्रकी बनी हुई है। इसलिये ज्ञानी महाराज सरल किन्तु भारवाले शब्दोंमें उपदेश करते हैं कि मन का कदापि विश्वास न कर । मच्छियोंको पकड़ने निमित्त धीवर जालको किस प्रकार फैलाता है इसका जिसको अनुभव हो वह समझ सकता है कि एक बार उसके सपाटेमें आया हुआ मच्छ फिर वापिस कदापि नहीं निकल सकता है । हम मनपर विश्वास रक्खे और फिर बाड़ ही खेतको खाने लगे तो फिर किसी प्रकारका बचाव या उपाय नहीं रहता है, इसलिये जैसे टूटी हुई वृक्षकी डालीपर बैठनेका विश्वास नहीं किया जाता उसीप्रकार इसपर भी विश्वास नहीं करना चाहिये । मनके कुविकल्पोंसे बनी हुई जाल किसप्रकार और किस प्रसंगपर फैलती है उसका सरल दृष्टान्त देखना हो तो प्रतिक्रमणमें मन किन किन दूरस्थ देशोंकी यात्रा कर आता है उसका
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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