SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकार ] वितदमनाधिकार [ ३०५ विचार करें । ऐसे शुद्ध स्थानमें, शुद्ध श्रासनपर, शुद्ध गुरुमहाराजके समक्ष भी वह एकान नहीं रहता है, तो फिर उसका क्या विश्वास किया जाय? ... .. .. ___• मनपर विश्वास करनेवाला नरकके दुःख भोगेगा इतनाही नहीं अपितु उसका यहाँका भी एक भी कार्य सिद्ध न हो सकेगा; अत: उसका विश्वास न कर उसको अपने भाधीन रखना चाहिये । ___ मन मित्रको अनुकूल होने निमित्त प्रार्थना. चेतोऽर्थये मयि चिरत्नसख ! प्रसीद, . किं दुर्विकल्पनिकरैः क्षिपसे भवे माम् ? बद्धोऽजलिः कुरु कृपां भज सद्विकल्पान् , मैत्री कृतार्थय यतो नरकाद्विभमि ॥२॥ __ " हे मन ! मेरे दीर्घकालके मित्र ! मैं प्रार्थना करता हूँ कि तूं मेरेपर कृपा कर । दुष्ट संकल्प करके क्यों मुझे संसारमें डालता है ? ( तेरे सामने ) मैं हाथ जोड़ कर खड़ा हुभा हूँ, मेरेपर कृपादृष्टि कर, उत्तम उत्तम विचार उत्पन्न कर और अपनी दीर्घकालकी मित्रताको सफल कर-कारण कि मैं नरकसे डरता हूँ।" वसंततिलका. विवेचन-मनपर विश्वास न करना तो सच्च बात है, परन्तु वह तो अस्तव्यस्तपनसे चला जाता है। इसलिये अब आत्मा उसे समझाता है, उसकी खुशामद करता है । मन और जीवमें अनेकों वर्षोंका सम्बन्ध है। जब पंचेन्द्रियपनकी स्थितिमें जीव आता है तबसे उसका मनके साथ सम्बन्ध होता है। इस. १ निकरे इत्यादि पाठः सार्थो दृश्यते ।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy