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________________ अधिकार ] कषायत्याग [ २३७ कषायसे सुकृतका नाश. कष्टेन धर्मो लवशो मिलत्ययं, क्षयं कषायैर्युगपत्प्रयाति च । अतिप्रयत्नार्जितमर्जुनं ततः, किमज्ञ ! ही हारयसे नभस्वता ॥ १५ ॥ " महाकष्ट भोगने पर जो थोड़ा थोड़ा करके 'धर्म' प्राप्त होता है वह सब कषाय करनेसे एक ही सौकेमें एकदम नाश हो जाता है। हे मूर्ख ! अत्यन्त परिश्रमसे प्राप्त किया हुमा सोना एक फूंक मार कर क्यो उड़ा देता है ?" वंशस्थ. • विवेचन--श्रुतचारित्रलक्षण धर्म अत्यन्त कठिनतासे जरा जरा करके प्राप्त होता है। अनेक पुद्गलपरावर्तन करनेके पश्चात् भाखिरी पुद्गल, परावर्तनमें कुछ धर्मप्राप्तिका होना सम्भव होता है । वह प्रबल पुरुषार्थद्वारा रक्षण करने योग्य है, परन्तु कषाय करनेके पश्चात् भी प्राणी कषायमोहनीयसे एकदम अधोगतिको प्राप्त होता है और कई वक्त तो उसका उस समय इतना अधःपतन होता है कि फिर उसको फिरसे गुणस्थान MAHESH मिलनेका अवसर भी कठिन हो जाता है। जिसप्रकार कोई पुरुष रातदिन कठिन परिश्रम करके स्वर्ण प्राप्त करे और फिर उसकी संभाल न रखकर प्राप्त किया हुआ स्वर्णरज फुकके एक सख्त सपाटेमें उहादे, उसीप्रकार अत्यन्त कष्टसे प्राप्त किया हुआ धर्मरूप स्वर्ण, कषायरूप पवनका सपाटा आने पर एकदम नाश हो जाता है। कषाय संसारको बढ़ानेवाला, धर्मका घात करनेवाला और उसको छिन्नभिन्न करनेवाला है, इसलिये उच्च स्थान प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखनेवाले मुमुतुओंको इससे सचेत रहना जरुरी है । विशेष जाननेके लिये १८ वां श्लोक पढ़े।
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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