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________________ १३८] अध्यात्मकनपद्रुम [स ] __धर्म मिलना कठिन है इसको बारंबार बताने की आवश्यकता नहीं है । ऐकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियमें तो इसकी प्राप्ति लगभग अशक्य है और विकासक्रमानुसार आगे बढ़नेपर विशेषतया मनुष्य जन्ममें ही इसकी प्राप्ति होना संभव है। मनुष्य जन्म प्राप्त करना कितना कठिन है इसका सविस्तार वर्णन इसी अधिकारके उन्नीसवें श्लोकमें किया गया है। ऐसी कठिनतासे प्राप्त किया हुआ मनुष्यभव भी पौद्गलिक इच्छाचोंकी तृप्तिमें, व्यर्थ खटपट करनेमें, उदरपूरणकी चिन्ता और कामभोगकी तृप्तिमें व्यतीत कर दिया जाता है और पापके संचार होनेसे अन्तमें प्राणी फिरसे अधःपतनको प्राप्त होता है और मनुष्य भव प्राप्त करनेकी स्थितिको अपने मापसे बहार कर देता है। मनुष्यभवमें भी शारीरिक मारोग्यता, ज्ञानप्राप्तिद्वारा ग्रहण करने योग्य मानसिक बल, उसको बतानेवाले शुद्ध गुहका संयोग और उसको अनुकरण करनेकी प्रबल अभिलाषा प्राप्त होना अत्यन्त कठिन हो जाता है । ऐसी अनेक कठिनाइयों में फंस जाने पश्चात् भी यदि कदाच इस जीवको धर्मरत्नकी प्राप्ति हो जाती है तो फिर भी वह उससे लाभ उठानेके स्थानमें यातो न जैसी बावतोंमें क्रोध करने लगता है, किसीसे वैर करता है, धर्मके नामपर झूठे झगड़े करता है या थोड़ासा खर्च करके कर्णके समान दानी कहलानेमें आनंद मानता है, अपने उत्तम ज्ञानका अभिमान करता है, अपने समान पहले कोई नहीं हुआ है और इस समयमें तो कोई मेरे समान है ही नहीं ऐसा मानता है, दूसरोंको मनाने के लिये बाध्य करता है और अपनेसे विरुद्ध विचार रखनेवालेकी हँसी उड़ाने निमित्त सीधा वथा टेड़ा मार्ग ढूंढ़ता है, या अपनेमें कोई गुण नहीं है ऐसा ऊपर ऊपरसे बताकर मान प्राप्त करना
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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