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________________ [ सप्तम् २३६ ] अध्यात्मकल्पद्रुम करानेवाले पापकमों के विवेचन - संसार में भ्रमण अतिरिक्त और कोई नहीं है । यह तुझे स्पष्टतया मालूम है फिर भी तूं गुणवानों से ईर्षा क्यों कर करता है ? एक तो गुणवानों का वर्ग ( Class ) ही दूसरों से भिन्न हो जाता है; और फिर शामलभट्टके कथनानुसार ''वैर सूम दातार, वैर कायर अरुशूरो " हो जाता है। ज्ञान, शक्ति, धनव्यय, सन्तोष, ऋजुता, प्राज्ञता, विद्वत्ता, ब्रह्मचर्य्य, दयालुता, नम्रता आदि ऐसे गुण हैं कि ये गुण जिनमें न हो वे पुरुष गुणवानों से द्वेष, ईर्षा अथवा स्पर्धा करते हैं, और जिसके परिणामस्वरूप वे महान् अधोगतिको प्राप्त होते हैं, और संसार - बंदीखाने में पढ़ने पर ऐसी मजबूत जन्जिरोंसे बाँधे जाते हैं कि जिनसे यह जीवरूप कैदी उसमेंसे निकल कर शिघ्रतया नहीं भग सकता है । इस सबका सार यह है कि यदि संसार से पानेकी अभिलाषा हो तो गुणवान् का बहुत आदरसत्कार करना । साधारण पुरुषसे भी डाह ईर्ष्या न करे यह तो इससे सिद्ध है; कि विशेषतया गुणवान्‌के तो पैर पूजने चाहिये । गुणप्राप्तिका यही सहज उपाय है कि गुणवान्की सेवा करें । " स्वामी गुण ओळखी, स्वामीने जे भजे, दर्शन शुद्धता तेह पामे " गुणके ज्ञानकी इस महिमाको समझो, विचारो और गुणों को ग्रहण करो, यह ही तुम्हारा कर्त्तव्य है और इसीकी छूटकारा प्रेरणा की गई है । गुणवान् पर मत्सर करने से समकित - की चार भावनायें, जिनका वर्णन प्रथम अधिकार में किया गया है उनमें से प्रमोद भावनाका नाश हो जाता है। जिनके नाश हो जाने पर मैत्रीभाव नहीं रहता है और बिना भावना समकित की शुद्धि न रहे इतना ही नहीं अपितु अन्तमें उसका क्षय भी हो जाता है, अतः गुणवान्पर प्रेम रखना शुद्ध जीवनका मुख्य कर्त्तव्य है 1
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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