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________________ भापर्नु आतम भावजो, एक चेतनाधार रे। अवर सवि साथ संजोगथी, यह निज परिकर सार रे ॥ शांति०॥ यह समतावंत जीव का संक्षिप्त स्वरूप है। इसका अधिक विस्तृत वर्णन आगम में है। इस भावना को समता के अधिकारी जीवों को निरन्तर हृदय में रखना चाहिये । समता के अंग-चार भावना. भजस्व मैत्री जगदंगिराशिषु, प्रमोदमात्मन् गुणिषु त्वशेषतः। भवार्तिदीनेषु कृपारसं सदा प्युदासवृति खलु निर्गुणेष्वपि ॥ १० ॥ "हे आत्मा! जगत के सर्व जीवों पर मैत्रीभाव रक्ख सब गुणवान् पुरुषों की ओर संतोष दृष्टि से देख भव ( संसार) की पीड़ा से दुःखी होते प्राणियों पर कृपा रख और निर्गुणी प्राणियों पर उदासवृत्ति-माध्यस्थ भाव रक्ख." वंशस्थवृत्त. भावार्थ:-समता की भाव मूर्ति का स्वरूप बता दिया गया है । अब समता प्राप्त करने के अनेक साधन है उनका वर्णन किया जाता है। अपने संयोगानुसार कौनसा साधन अनुकूल होगा यह मुसुक्षु प्राणी विवेकदृष्टि से विचार कर के समझ लेवें । एक जीव को जो अत्यन्त लाभदायक साधन होते हैं वे दूसरे जीव के लिये मानसिक बन्धारण एवं उत्क्रांति के
SR No.022086
Book TitleAdhyatma Kalpdrum
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay Gani
PublisherVarddhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala
Publication Year1938
Total Pages780
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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