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________________ श्रावक प्रज्ञप्तिः पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवे नालि | जे संजऐ पत्ते बहु निज्जरे बंधए थोवं ||३६|| पल्ले अतिशय महति । कुम्भं सोधयति प्रक्षिपति नालिम् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः - यः संयतः सम्यग्दृष्टिरीषत्प्रमादवान् प्रमत्तसंयत एव नान्ये । बहु निर्जरयति बध्नाति स्तोकं, सगुणत्वादिति ॥३६॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभं सोहेइ पक्खिवइ न किंचि । २६ [ ३६ - जे संजए अपमत्ते बहु निज्जरे बंधइ न किंचि ॥३७॥ पल्लेऽतिशय महति कुम्भं सोधयति प्रक्षिपति न किचित् । एष दृष्टान्तो ऽयमर्थोपनयः - यः संयतोऽप्रमत्तः प्रमादरहितः साधुरित्यर्थः । बहु निर्जरयति, बध्नाति न किचिद्विशिष्टतरगुणत्वात् ( एक छोटा माप ) को निकालता है । इसी प्रकारसे असंयत - मिथ्यादृष्टि जीव-जो काकमांस आदिके व्रत से भी रहित है वह बहुत कर्मको बांधता है और निर्जरा थोड़े कर्मकी करता है || ३५॥ प्रमत्त संयत के लिए एक दूसरा उदाहरण अतिशय महान् पल्यके भीतरसे कुम्भको निकालता है और नालिको स्थापित करता है । ठीक इसी प्रकारसे प्रमत्त संयत जीव बहुत कर्मकी निर्जरा करता है, पर बाँधता थोड़े कर्मको है ||३६|| अप्रमत्त संयत के लिए अन्य एक उदाहरण - अतिशय महान् पल्यके भीतरसे कुम्भको निकालता है, पर स्थापित उसमें कुछ नहीं करता है । ठीक इसी प्रकारसे अप्रमत्त संयत जीव कर्मको निर्जरा तो बहुत करता है, पर बाँधता कुछ भी नहीं है ||३७|| 1 विवेचन - शंकाकारका अभिप्राय यह है कि जब तक वह अभिन्नपूर्व ग्रन्थि विद्यमान है इस बीच जो कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिको क्षीण करते हुए उसे एक कोड़ाकोड़ी सागरोपमसे भी कुछ (पल्योपमका असंख्यातवां भाग ) हीन करनेकी प्रक्रिया दिखलायी गयी है ( ३१-३२ ) वह योग्य नहीं है । इसका कारण यह है कि जीव जबतक सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे हीन रहता है तबतक उसके अधिकाधिक ही कर्मबन्ध हुआ करता है । ऐसी स्थिति में उसके लिए उक्त प्रकारसे उत्कृष्ट कस्थितिका हीन करना सम्भव नहीं है। ऐसा स्वीकार न करनेपर आगमसे विरोध दुर्निवार होगा । कारण यह कि आगममें ऐसा कहा गया है कि जिस प्रकार किसी धान्य रखने के बड़े बर्तन में कुम्भ प्रमाण धान्यके रखने और नालि प्रमाण उसमेंसे निकालने उसमें उत्तरोत्तर नियमसे अधिक धान्यका संचय होता है उसी प्रकार सर्वथा व्रतसे रहित असंयत मिध्यादृष्टि जीव कर्मको बांधता तो बहुत है ओर निर्जरा उसकी थोड़ी करता है । अत: उसके कर्मका संचय अधिक हो होनेवाला है । इस स्थितिमें उसके उक्त प्रकारसे कर्मस्थितिका हीन होना सम्भव नहीं है । इसके साथ आगम में यह भी कहा गया है कि उसी धान्यके बर्तन मेंसे यदि कुम्भ प्रमाण धान्यको निकाला जाता है और नालि प्रमाण उसमें रखा जाता है तो जिस प्रकार उस बर्तन में धान्यका प्रमाण उत्तरोत्तर हीन होता जाता है उसी प्रकार अप्रमत्त संयत जीव कर्मकी निर्जरा तो बहुत करता है, पर बाँधता कम है, इस प्रकारसे उसके कर्म की हानि उत्तरोत्तर अवश्य होनेवाली है । १. भ संजये ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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