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________________ - ३९] युक्तिप्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्वप्राप्तिविचारः २७ बन्धकारणाभावादिति ॥३७॥ गुरुराह एयमिह ओहविसयं भणियं सव्वे न एवमेव त्ति । अस्संजओ उ एवं पडुच्च ओसन्नभावं तु ॥३८॥ एतदिति पल्ले महइमहल्ले इत्यादि । इहास्मिन् विचारे। ओघविषयं सामान्यविषयम् । भणितमुक्तम । सर्वे न एवमेवेति सर्वे नैवमेव बध्नन्ति । अस्यैव विषयमुपदर्शयति-असंयतस्त्वेवं मिथ्याटिरेव एवं बध्नाति. नान्य इति। असावपि प्रतीत्याजीकृत्य। ओसन्नभावं बाहल्य. भावम् । तुरवधारणे-ओसन्नभावमेव, न तु नियममिति ॥३८॥ नियमे दोषमाह पावइ बंधाभावो उ अन्नहा पोग्गलाणभावाओ। इय वुढिगहणओ ते सव्वे जीवेहि जुज्जति ॥३९॥ प्राप्नोति आपद्यते । बन्धाभावस्तु बन्धाभाव एव । अन्यथान्येन प्रकारेण सर्वे असंयता एवं बध्नन्तीत्येवंलक्षणेन । किमित्यत्रोपपत्तिमाह-पुद्गलानामभावाद्बध्यमानानां कर्मपुद्गलानामसंभवात् । तेषामेवाभावे उपपत्तिमाह-इति वृद्धिग्रहणतः एवमनन्तगुणरूपतया वृद्धिग्रहणेन । ते इसके अतिरिक्त उसी बर्तनमें से कुम्भ प्रमाण धान्यको निकाला जाता है और रखा उसमें कुछ भी नहीं जाता है तब जिस प्रकार यथासमय वह बर्तन धान्यसे रहित हो जाता है ठीक उसी प्रकारसे जो अप्रमत्त संयत जीव कर्मको निर्जरा तो बहुत करता है और बांधता कुछ भी नहीं है वह कर्मसे यथासमय मुक्त हो जाता है। प्रकृत अप्रमत्त संयतके बन्ध इसलिए नहीं होता कि वह बन्धके कारणभूत मिथ्यादर्शनादिसे रहित हो चुका है। इस आगमके आधारसे उक्त शंकाकारका यह कहना है कि मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे रहित होनेके कारण जब कर्मका अधिकाधिक ही बन्ध होनेवाला है तब ऊपर बतलायी गयी कर्मस्थितिकी हानि उसके सम्भव नहीं है ॥३४-३७॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है उक्त प्रकारसे आगममें जो बन्ध और निर्जराके क्रमका निर्देश ,किया है वह सामान्यसे किया गया है। कारण कि सब जोव इसी प्रकारसे कर्मको नहीं बांधते हैं, किन्तु व्रत रहित मिथ्यादृष्टि असंयत ही उस प्रकारसे कर्मको बांधता है। वह भी बहुलताकी अपेक्षासे वैसे बांधता हैसब ही मिथ्यादृष्टि असंयत उस प्रकारसे नहीं बांधते हैं ॥३८॥ वैसा न माननेपर जिस आपत्ति की सम्भावना है उसे आगे प्रकट करते हैं मिथ्यादृष्टि असंयत भी बहुलतासे ही अधिकाधिक कर्मको बांधते हैं, यदि ऐसा न माना जाये तो बन्ध योग्य पुद्गलोंका अभाव हो जानेके कारण बन्धके अभावका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा। इसका कारण यह है कि उक्त प्रकार अनन्तगुणी वृद्धिके साथ कर्मपुद्गलोंके ग्रहण किये जानेपर वे सब पुद्गल जीवोंके साथ सम्बन्धको प्राप्त हो सकते हैं। विवेचन-पूर्वोक्त शंकाके समाधानमें यहां यह कहा गया है कि आगममें जो असंयतके अधिकाधिक कर्मबन्धका निर्देश किया गया है वह सामान्यसे किया गया है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि सभी असंयत जीव उक्त प्रकारसे कर्मका बन्ध नहीं किया करते हैं, किन्तु असंयत मिथ्यादृष्टि जीव ही उक्त क्रमसे कर्मका बन्ध अधिक और निर्जरा उसकी अल्प मात्रामें किया १. भ असंयतस्त्वेव।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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