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________________ - ३५] युक्ति- प्रत्युक्तिपुरःसरं सम्यक्त्व प्राप्तिविचारः २५ पुनस्तं ग्रन्थिमवाप्तसम्यग्दर्शनः सन् बन्धेन कर्मबन्धेन । न व्यवलीयते नातिक्रामयति । कदाचित्कमरिचकाले । न ह्यसावुत्कृष्ट स्थितीनि कर्माणि बध्नाति तथाविधपरिणामाभावादिति ॥३३॥ अत्राह - तंजाविह संपत्ती न जुञ्जए तस्स निग्गुणत्तणओ | बहुतरबंधाओ खलु सुत्तविरोहा जओ भणियं ॥ ३४ ॥ तं ग्रन्थिम् । यावदिह विचारे । संप्राप्तिर्न युज्यते न घटते । कुतः ? तस्य निर्गुणत्वात्तस्य जीवस्य सम्यग्दर्शनादिगुणरहितत्वात् । निर्गुणस्य च बहुतरबन्धात् । खलुशब्दोऽवधारणे - बहुतरबन्धादेव । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् । सूत्रविरोधादन्यथा सूत्रविरोध इत्यर्थः । कथमिति आहे - यतो भणितं यस्मादुक्तमिति ||३४|| किमुक्तमित्याह पल्ले महइमहल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहऐ नालिं । अस्संजए अविर बहु बंधइ निज थोवं ॥ ३५ ॥ पल्लवत्पल्यस्तस्मिन् पल्ये । महति महल्ले अतिशयमहति । कुम्भं लाटदेशप्रसिद्धमानरूपम्, 'धान्यस्येति गम्यते । प्रक्षिपति स्थापयति । सोधयति' नालि गृह्णाति सेतिकाम् । एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः - योऽसंयतः सकलसम्यक्त्वादिगुणस्थानेष्व संयतत्वान्मिथ्यादृष्टिः परिगृह्यते । अविरत: काकमांसादेरप्यनिवृत्तः । बहु बध्नाति निर्जरयति स्तोकं स्तोकतरं क्षपयति, निर्गुणत्वात् । गुणनिबन्धना हि विशिष्ट निर्जरेति ॥३५॥ घूर्णन के निमित्तसे - नाना योनियों में अनेक प्रकारके दुख-सुखका अनुभव करते हुए - उत्तरोत्तर क्षीण करता हुआ जब एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण कर देता है तथा शेष रही इस एक Satta सागरोपम प्रमाण स्थितिमें भी जब पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्रको और भी क्षीण कर देता है तब तक भी वह ग्रन्थि अभिन्नपूर्व - पूर्वमें कभी न भेदी गयी के रूपमें - हो अवस्थित रहती है । पश्चात् जो जीव उसके भेदने में समर्थ होता है वह जब उसे अपूर्वकरण परिणामके द्वारा भेदता है-निर्मूल कर देता है - तब कहीं उसे अनिवृत्तिकरणके आश्रयसे मुक्तिका कारणभूत वह सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जानेपर फिर कभी वह उपर्युक्त उत्कृष्ट स्थिति से संयुक्त कर्मको नहीं बांधता है ||३३|| यहाँ शंकाकार कहता है ग्रन्थि तक यहां उसकी प्राप्ति घटित नहीं होती, क्योंकि तब तक जीवके निर्गुणसम्यग्दर्शनादि गुणोंसे रहित- होनेके कारण अधिकसे अधिक कर्मबन्ध होनेवाला है । और यदि ऐसा न माना जाये तो आगमका विरोध दुर्निवार होगा, क्योंकि आगममें ऐसा कहा गया है ||३४|| आगम में क्या कहा गया है, इसे आगे तीन गाथाओं द्वारा स्पष्ट करते हुए प्रथमतः उदाहरणपूर्वक असंयत कर्मबन्धको प्रकट किया जाता है अतिशय महान् पल्य (कुठिया - धान्य रखने के लिए मिट्टीसे निर्मित एक बड़ा बर्तन ) में कुम्भ ( लाट देश प्रसिद्ध धान्य मापनेका एक उपकरण ) को तो स्थापित करता है और नालि १. अ 'च' नास्ति । २. अ कथमित्यत्राह । ३. अ पक्खिवए सोहइ । ४. अ अविरइ । ५. महते । ६. अ साधयति । ४
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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