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________________ २२ श्रावकप्रज्ञप्तिः प्रतिग्राहके च पात्रविशेषे दानफलं च जानन्नोत्सहते दातुम् । लाभान्तरायं तु यदुदयात्सत्यपि प्रसिद्धे दातरि तस्यापि लभ्यस्य भावे याञ्चाकुशलोऽपि न लभते । भोगान्तरायं तु यदुदयात्सति विभवे अन्तरेण विरतिपरिणामं न भुंक्ते भोगान् । एवमुपभोगान्तरायमपि । नवरं भोगोपभोगयोरेवं विशेषः - सकृद्भुज्यत इति भोगः आहार- माल्यादिः पुनः पुनरुपभुज्यत इत्युपभोगः भवन - वलयादिः । उक्तं च १ सइ भुज्जइत्ति भोगों सो उण आहार - फुल्लमाईसु । उवभोगो उ पुणो पुण उवभुज्जइ भुत्रणव- लयाई ॥ [ २७. - वीर्यान्तरायं तु यदुदयान्निरुजो वयस्थश्चात्पवीर्यो भवति । चित्रं पुद्गलरूपं विज्ञेयं सर्वमेवेदम् - चित्रमनेकरूपं चित्रफलहेतुत्वात्, पुद्गलरूपं परमाण्वात्मकं न वासनादिरूपममूर्तमिति, विज्ञेयं ज्ञातव्यं भिन्नालम्बनं पुनः क्रियाभिधानमदुष्टमेव । सर्वेदं ज्ञानावरणादि कर्मेति ॥ २६ ॥ यस एग परिणामसंचियस्स उठिई समरकाया । - उक्को सेयरभेया तमहं वुच्छं समासेणं ||२७|| एतस्य चानन्तरोदितस्य कर्मणः । एकपरिणामसंचितस्य । तु शब्दस्य विशेषणार्थत्वात्प्रायः क्लिष्टैक परिणामोपात्तस्येत्यर्थः । स्थितिः समाख्याता सांसारिका शुभफलदातृत्वेनावस्थानम् । उक्तमागम इति गम्यते । उत्कृष्टेतरभेदादुत्कृष्टा जघन्या च समाख्यातेति भावः । तां स्थितिमहं जानना चाहिए । यह सब ही ज्ञानावरणादि रूप कर्म पुद्गल परमाणुस्वरूप अनेक प्रकारका जानना चाहिए । विवेचन-इन पाँच अन्तराय कर्मों का स्वरूप इस प्रकार है-जिसके उदयसे देने योग्य द्रव्य और ग्रहण करनेवाले विशिष्ट पात्र के रहते हुए तथा दानके फलको जानता हुआ भी जीव देने के लिए उत्साहित नहीं होता है उस दानान्तराय कहते हैं । जिसके उदयसे प्रसिद्ध दाता और उसके पास प्राप्त करने योग्य वस्तुके होनेपर भा तथा मांगनेमे निपुण होता हुआ भी प्राणी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त नहीं कर पाता उसका नाम लाभान्तराय है । जिसके उदयसे जीव वैभवके होनपर भी तथा विरतिरूप परिणामके न होते हुए भो भोगोंको नहीं भोग सकता है वह भोगान्तराय कहलाता है । इसी प्रकार उपभागरूप वस्तुओंके होनेपर तथा विरतिरूप परिणामके न होनेपर भी जिसके उदयसे जोव उनका उपभोग नहीं कर पाता है उसे उपभोगान्तराय कहते हैं । जो वस्तु एक ही बार भागने में आता है उसे भोग कहा जाता है - जैसे आहार व माला आदि । इसके विपरीत जो वस्तु बार-बार भोगने में आती है उसे उपभोग कहा जाता है - जैसे महल व चूड़ी आदि आभूषण । जिसके उदयसे प्राणी नीरोग व योग्य अवस्थाको प्राप्त होकर भी होन वीर्यवाला हुआ करता है उसका नाम वीर्यान्तराय है । प्रस्तुत कर्म चूँकि दिया करता है इसीलिए उसे यहाँ चित्र - अनेक प्रकारका – कहा गया है। रूप कहकर उसको अमूर्तिकता को प्रकट करते हुए वासनादि रूपताका गया है ||२६|| अनेक प्रकारके फलको साथ ही उसे पुद्गलनिषेध भी कर दिया आगे इस कर्म की स्थिति के कहने की प्रतिज्ञा करते हैं एक परिणाम से संचित - क्लिष्ट एक परिणाम से उपार्जित - इस कर्मकी जो आगम में १. अ विलयादि । २. अ भुज्जतु इति भोगो । ३. अ विलयाई ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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