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________________ -३०] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा वक्ष्ये अहमित्यात्मनिर्देशे, वक्ष्येऽभिधास्ये। समासेन संक्षेपेण, न तूत्तरप्रकृतिभेदस्थितिप्रतिपादनप्रपञ्चेनेति ॥२७॥ आइल्लाणं तिन्हं चरमस्स य तीस कोडिकोडीओ। आयराण मोहणिजस्स सत्तरी होइ विन्नेया ॥२८॥ आद्यानां त्रयाणां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयानां चरमस्य च सूत्रक्रमप्रामाण्यात्पर्यन्तवतिनोऽन्तरायस्येति त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोट्यः । अतराणामिति सागरोपमानाम् । मोहनीयस्य सप्ततिर्भवति विज्ञेया सागरोपमकोटिकोट्य इति ॥२८॥ नामस्स य गोयस्स य वीसं उक्कोसिया ठिई भणिया। तित्तीससागराइं परमा आउस्स बोद्धव्वा ॥२९॥ नाम्नश्च गोत्रस्य च विशतिः, सागरोपमकोटिकोटय इति गम्यते। उत्कष्टा स्थिति णिता सर्वोत्तमा स्थितिः प्रतिपादिता तीर्थकर-गणधरैरिति । त्रयस्त्रिशत्सागरोपमानि परमा प्रधानायुःकर्मणा बोद्धव्येति ॥२९॥ अधुना जघन्यामाह वेयणियस्स य बारस नामागोयाण अट्ठ उ मुहुत्ता । सेसाण अहन्नठिई भिन्नमुहुत्तं विणिद्दिट्ठा ॥३०॥ वेदनीयस्य कर्मणो जघन्या स्थितिरिति योगः, द्वादशमुहूर्ताः। नामगोत्रकर्मणोरष्टौ मुहूर्ताः, इत्थं महर्तशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते। द्विघटिको मुहर्तः। शेषाणां ज्ञानावरणादीनाम् । जघन्या स्थितिभिन्नमुहूतं विनिर्दिष्टान्तर्महतं प्रतिपादितेति ॥३०॥ प्रकृतयोजनायाहउत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारकी स्थिति कही गयी है उसे मैं ( ग्रन्थकार) संक्षेपसेकेवल मूल प्रकृतियोंके हो आश्रयसे-कहँगा ॥२७॥ अब कृत प्रतिज्ञाके अनुसार उस कर्मस्थितिका निरूपण करते हए यहां प्रथम तीन कर्मोंके साथ अन्तिम अन्तराय और मोहनीय कर्मकी भी उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है आदिके तीन-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और वेदनीय-को तथा अन्तिम अन्तराय वमकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरोपम है। मोहनीय कमंकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण जानना चाहिए। कर्म जितने समय तक सांसारिक शुभाशुभ फलके दातारूपसे अवस्थित रहता है उतने समय प्रमाणको उसकी स्थिति जानना चाहिए ॥२८॥ आगे शेष तीन कर्मोको उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है नाम और गोत्र कर्मको उत्कृष्ट स्थिति बोस कोडाकोड़ी सागरोपम कही गयो है। आयुकर्मको उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम मात्र जानना चाहिए ॥२९॥ अब उन कर्मोंकी जघन्य स्थितिका निर्देश किया जाता है जघन्य स्थिति वेदनीय कर्म बारह मुहूर्त, नाम व गोत्र कर्मको आठ मुहूर्त तथा शेषज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय-कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र कही गयो है॥३०॥ १. भ क्रमप्रमाणात् । २. अ कोट्याकोट्य इति । ३. अ 'य' नास्ति। ४. म नामग्गोयाण । .
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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