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________________ -- २६ ] सम्यक्त्वप्रसंगे कर्मप्ररूपणा २१ तद्विपरीतमनादेयम् । यशः कीर्तिनाम यदुदयाद्यशः कीर्तिभावः । यशः कीत्यविशेषः - दानपुण्यफला कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः । अयशः कीर्तिनाम चोक्तविपरीतम् । निर्माणनाम यदुदयात्सर्वजीवानां अङ्गोपाङ्गनिवेशो भवति । जातिलिङ्गाकृतिव्यवस्था नियम इत्यन्ये । अतुलं प्रधानम् । चरमं प्रधानत्वात्सूत्रक्रमप्रामाण्याच्चेति । तीर्थकरनाम यदुदयात्सदेवमनुष्यासुरस्य जगतः पूज्यो भवति । चः समुच्चये इति ॥२४॥ गोयं च दुहियं उच्चागोयं तहेव नीयं च चरमं च पंचभेअं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ २५ ॥ गोत्रं प्राङ्गनिरूपित शब्दार्थ भवति । द्विविधं द्विप्रकारम् । उच्चैर्गोत्रं तथैव नीचं चेति नोचैर्गोत्रं च । तत्रोच्चैर्गोत्रं यदुदयादज्ञानो विरूपोऽपि सत्कुलमात्रादेव पूज्यते । नीचैर्गोत्रं तु यदुदयाज्ज्ञानादियुक्तोऽपि निन्द्यते । चरमं च पर्यन्तवति च सूत्रक्रमप्रामाण्यात् । पञ्चभेदं पञ्चप्रकारम् । प्रज्ञप्तं प्ररूपितं वीतरागैरर्हद्भिरिति ॥ २५ ॥ तं दाणलाभभोगोवभागविरियंतराइयं जाण । चित्तं पोग्गलरूवं विन्नेयं सव्वमेवेयं ॥ २६॥ तद्दान- लाभ-भोगोपभोग-वोर्यान्तरायं जानीहि । तत्र दानान्तरायं यदुदयात्सति दातव्ये जाता है । इस कर्मका उदय होनपर प्राणी जैसी कुछ प्रवृत्ति करता है बोलता है उस सबको लोग प्रमाण करते हैं, इसके विपरीत जिसके उदयसे प्राणी दूसरोंके लिए अग्राह्य होता है वह अनादेय नामकर्म कहलाता है । इस कर्मका उदय होनेपर प्राणा युक्तिसंगत बालता है, फिर भी लोग उसे प्रमाण नहीं करते तथा आदरके योग्य होनेपर भा उसका आदर नहीं किया जाता। जिसके उदयसे प्राणीका यश और कीर्ति फैलती है उसका नाम यश: कोति नामकर्म है । दान जनित पुण्यके फल से कीर्ति और पराक्रम के प्रभावसे यशका प्रादुर्भाव होता है, यह इन दानों में भेद समझना चाहिए। उसके विपरीत जिस कर्मके उदयसे प्राणी के यश व कीर्तिका प्रसार नहीं होता है उसे अयशःकीर्ति नामकर्म कहा जाता है । जिसके उदयसे सब जीवोंकी जाति में अंग- उपांगों का निवेश होता है उसे निर्माण नामकर्म कहत हैं । अन्य किन्हीं आचार्योक मतानुसार जो जाति, लिंग और आकृतिका नियमन करता है उसे निर्माण नामकर्म कहा जाता है। जिसका उदय होनेपर जीव देव, पनुष्य और असुरोंसे परिपूर्ण समस्त लोकका पूज्य होता है उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते हैं ॥ २४ ॥ अब गोत्र कर्म के दो भेदों को दिखलाते हुए अन्तराय कर्मके भेदोंकी संख्याका निर्देश किया जाता है— गोत्रकर्म दो प्रकारका है— उच्चगोत्र और नीचगोत्र । अन्तिम अन्तराय कर्म वीतराग जिनके द्वारा पाँच प्रकारका कहा गया है। पूर्वोक्त गोत्र कर्म के दो भेदों में जिसके उदयसे जीव अज्ञानी व विरूप होकर भी केवल उत्तम कुछके कारण पूजा जाता है उसे उच्चगोत्र और जिसके उदयसे वह ज्ञानादि गुणोंसे सम्पन्न होता हुआ भी निन्दाका पात्र बनता है उसे नीचगोत्र कहा जाता है ||२५|| आगे अन्तराय कर्म के पूर्व निर्दिष्ट पाँच भेदोंका नामनिर्देश किया जाता है उस अन्तरायको दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तरायके रूपमें पांच प्रकारका १. भ विरयंतरायं ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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