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________________ - ३४२] श्रावकस्य निवासविषया सामाचारी २०९ चैत्यगृहे गुणानाह मिच्छादंसणमहणं सम्मइंसणविसुद्धिहेउं च। . चिइवंदणाइ विहिणा पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥३४१।। मिथ्यादर्शनमथनम् -मिथ्यादर्शनं 'विपरीतपदार्थश्रद्धानरूपं मथ्यते विलोड्यते येन तत्तथा। न केवलमपायनिबन्धनकदर्थनमेव, किन्तु कल्याणकारणोपकारि चेत्याह-सम्यग्दर्शनविशुद्धिहेतु च सम्यगविपरीतं तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं दर्शनं सम्यग्दर्शनं मोक्षादिसोपानम्, तद्विशुद्धिकरणं च। किं? तच्चैत्यवन्दनादि। आदिशब्दात् पूजादिपरिग्रहः। विधिना सूत्रोक्तेन । प्रज्ञप्तं प्ररूपितं वीतरागैरहद्भिः, स्थाने शुभाध्यवसायप्रवृत्तेरेतच्च चैत्यगृहे सति भवतीति गाथार्थः ॥३४॥ उक्ताश्चैत्यगृहगुणाः, सांप्रतं समानधार्मिकगुणानाह साहम्मियथिरकरणं वच्छल्ले सासणस्स सारो त्ति । मग्गसहायत्तणओ तहा अणासो य धम्माओं ॥३४२॥ समानधामिकस्थिरीकरणभिति-यदि कश्चित्कथंचिद्धर्मात् प्रच्यवते ततस्तं स्थिरीकरोति, महाश्चायं गुणः। तथा वात्सल्ये क्रियमाणे शासनस्य सार इति सार आसेवितो भवति । उक्तं च' "जिणसासणस्स सारो" इत्यादि । सति च तस्मिन् वात्सल्यमिति । तथा तेन तेनोपबृंहश्रवणसे तत्त्वविषयक शंका न रहनेके कारण निःशंकित परिणति होती है। उन्हें प्रासुक भोजन एवं औषधि आदिके प्रदान करनेसे पूर्वसंचित कर्मको निर्जरा होती है। इसके अतिरिक्त साधु स्वयं ज्ञान-दर्शनादि गुणोंसे संयुक्त होते हैं, अतः उनके आश्रयसे श्रावकके ज्ञानादि गुणोंमें वृद्धि होती है। इस प्रकार साधुसेवासे श्रावकको महान् लाभ होता है, अतः श्रावकको ऐसे ग्रामनगरादिमें ही निवास करना चाहिए जहाँ साधुओंका सदा समागम होता रहे ।।३४०॥ आगे वहाँ चैत्यगृहके रहनेसे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं विधिपूर्वक जो जिनवन्दना व जिनपूजा आदि की जाती है उससे मिथ्यादर्शन-तत्त्वविषयक विपरीत श्रद्धान-का निर्मथन ( विनाश ) होता है, साथ ही सम्यग्दर्शनकी विशुद्धियथार्थ तत्त्व श्रद्धान व हिताहितका विवेक-भी उससे उदित होता है। इसीलिए वीतराग जिनेन्द्रने उक्त चैत्यवन्दना आदिको मिथ्यादर्शनके निर्मूलन और सम्यग्दर्शनकी निर्मलताका कारण कहा है। यह चूंकि चैत्यगृहके रहनेपर ही सम्भव है, इसीलिए जहां चैत्यगृह हों वहाँ श्रावकके लिए रहने की प्रेरणा की गयी है ॥३४१॥ अब वहां सार्मिक जनके रहनेस होने वाले लाभको प्रकट किया जाता है सार्मिक जनके रहनेसे यदि कोई किसी प्रकार धर्मसे च्युत हो रहा है तो उसे उसमें स्थिर किया जाता है, यदि स्वयं उस धर्मसे च्यत हो रहा है तो अन्य सार्मिक अपने को उसमें स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार परस्परमें वात्सल्यभाव-धर्मानुरागके होनेपर-जनागमके सार ( रहस्य ) का आसेवन होता है। तथा मोक्षमार्गमें सहायक होनेसे धर्मसे बिनाश नहीं १. अमिथ्यादर्शन मिति मिथ्यादर्शन वि। २. भ किंचित चैत्यवंदनाद्यादिशब्दात । ३. अ धम्मातो। ४. अ आसेवेति । ५. अ 'च' नास्ति । ६. अ मुद्रितप्रति टिप्पणके असार आसेवितो भवति उक्तजिणसासणस्स सारो इत्यादि । ब सारश्च सेवेतो भवता उत्तापगागण भासण सरो इत्यादि । ७. अ इत्यादि स च । २७
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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