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________________ २०८ श्रावकप्रज्ञप्तिः [२३९ - उक्तः प्रत्याख्यानविधिरधुना श्रावकस्यैव निवासादिविषयां सामाचारी प्रतिपादयन्नाह निवसिज्ज तत्थ सड्ढो साहूणं जत्थ होइ संपाओ। चेइयघराइ जत्थ य तयन्नसाहम्मिया चेव ॥३३९॥ निवसेत्तत्र नगरादौ श्रावकः, साधूनां यत्र भवति संपातः-संपतनं संपातः, आगमनमित्यर्थः। चैत्यगृहाणि च यस्मिस्तदन्यसाधर्मिकाश्चैव श्रावकादय इति गाथासमासार्थः ॥३३९॥ अधुना प्रतिद्वारं गुणा उच्यन्ते तत्र साधुसंपाते गुणानाह साहूण वंदणेणं नासइ पावं असंकिया भावा । फासुयदाणे निज्जर उवग्गहो नाणमाईणं ॥३४०॥ साधूनां वन्दनेन करणभूतेन । किम् ? नश्यति पापम् गुणेषु बहुमानात् । तथा अशङ्किता भावास्तत्समीपे श्रवणात् । प्रासुकदाने निर्जरा। कुतः। उपग्रहो ज्ञानादीनां ज्ञानादिमन्त एव साधर्व इति? उक्ताः साधुसंपाते गुणाः ॥३४०॥ जाये ? इस शंकाके उत्तरमें प्रथम तो यही कहा गया है कि जैसे वचन और काय योगोंके द्वारा वे करना-कराना आदि होते हैं वैसे ही वे मन योगसे होते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वचन और काय के द्वारा जो किया जाता है, कराया जाता है और अनुमोदन किया जाता है; यह सब उस मनके अधीन है। कारण यह कि प्रथमतः मनसे ही उक्त करने, कराने और अनुमोदनका विचार किया जाता है । तत्पश्चात् प्रयोजनके अनुसार प्राणी वचनसे व कायसे करता है, कराता है व अनुमोदन करता है। मनसे विचार करनेके बिना वे वचन और कायसे सम्भव नहीं हैं, इसलिए वचन और कायके समान ही उन तीनोंको मनसे भी समझना चाहिए। आगे प्रकारान्तरसे पृथक्-पृथक् उनके स्वरूपको दिखलाते हुए कहा गया है कि प्राणी 'मैं अमुक सावद्य कार्यको करता हूँ इस प्रकारका जो विचार करता है, यह 'मनकृत' का लक्षण है। 'यह अमुक कार्य कर दे' इस प्रकारसे जो मनमें विचार किया जाता है, इसे 'मनकारित' समझना चाहिए। इसी प्रकार जब दूसरा चेष्टासे उसके अभिप्रायको समझकर इच्छित कार्यको कर देता है तब प्राणी जो यह सोचता है कि 'इसने मेरा कार्य ठीकसे कर दिया है' इसे 'मनसे अनुमत' जानना चाहिए ॥३३६-३३८॥ अब आगे श्रावककी निवासादि विषयक सामाचारीका निरूपण करते हुए प्रथमतः उसे कैसे स्थानमें निवास करना चाहिए, इसे स्पष्ट किया जाता है श्रावकको वहां-ऐसे नगर आदिमें-रहना चाहिए जहाँ साधुओं का आगमन होता हो, चैत्यगृह (जिनभवन) हों तथा अन्य सार्मिक जन भी रहते हों ॥३३९॥ आगे साधुसमागमसे होनेवाले लाभको दिखलाते हैं साधुओंकी वन्दनासे पाप नष्ट होता है, परिणाम शंकासे रहित होते हैं, उन्हें प्रासुक आहार आदिके देनेसे निर्जरा होती है, तथा आदिका उपग्रह होता है। विवेचन-जहां साधुओंका समागम होता है, ऐसे स्थानपर श्रावकके रहनेसे उसे क्या लाभ होता है, इसे स्पष्ट करते हुए यहां यह कहा गया है कि साधुओंके आनेसे श्रावकको उनकी वन्दना आदिका अवसर प्राप्त होता है जिससे उसके पापका विनाश होता है। उनसे जिनागमके १. अ जस्मि तयन्न । २. अ भवति संपातः आगमन । ३. अ एव हि साधव ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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