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________________ २१० श्रावकप्रज्ञप्तिः [ ३४३ - णादिना प्रकारेण । सम्यग्दर्शनाविलक्षणमार्गसहायत्वादनाशश्च भवति । कुतो धर्मात्तत एवेति गाथार्थः ॥३४२॥ 1 उक्ताः समानधार्मिक गुणाः । सांप्रतं तत्र निवसतो विधिरुच्यते, तत्रापि च प्रायो भावसुप्ताः श्रावकाः ये प्राप्यापि जिनमतं गार्हस्थमनुपालयन्त्यतो निद्रावबोधद्वारेणाह - नवकारेण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाईमि । जोगो चिइवंदणमो पच्चक्खाणं च विहिपुव्वं ॥ ३४३ ॥ नमस्कारेण विबोध इति सुप्तोत्थितेन नमस्कारः पठितव्यः । तथानुस्मरणं कर्तव्यं श्रावकोऽहमिति । व्रतादौ विषये - ततो योगः कायिकादिः । चैत्यवन्दनमिति प्रयत्नेन चैत्यवन्दनं कर्तव्यम् । ततो गुर्वादीनभिवन्द्य प्रत्याख्यानं च विधिपूर्वकं सम्यगाकारशुद्धं ग्राह्यमिति ॥ ३४३ ॥ गोसे सयमेव इमं काउं तो चेइयाण पूयाई । साहुसगा से कुज्जा पच्चक्खाणं अहागहियं || ३४४ || गोसे प्रत्युषसि । स्वयमेवेदं कृत्वा गृहादौ । ततश्चैत्यानां पूजादीनि संमार्जनोपलेप- पुष्पधूपादिसंपादनादि कुर्यात् । ततः साधुसकाशे कुर्यात् । किम् ? प्रत्याख्यानं यथा गृहीतमिति ॥ ३४४॥ अत्र केचिदधिगतसम्यगागमा ब्रुवत इति चोदकमुखेन तदभिप्रायमाह - पूया काय हो पडिकुट्टो सो अनेव पुज्जाणं । उवगारिणित्ति तो सा नो कायव्व त्ति चोएइ || ३४५ || पूजायां भगवतोऽपि किले क्रियमाणायाम् । कायवधो भवति, पृथिव्याद्युपमर्दमन्तरेण तदनुपपत्तेः । प्रतिक्रुष्टः स च कायवधः सव्वे जीवा न हंतव्वेत्यादि वचनात् । कि च न च पूज्यानामर्हतां तच्चैत्यानां वा उपकारिणी पूजा, अर्हतां कृतकृत्यत्वात् तच्चैत्यानामचेतनत्वात् । इतिशब्दो यस्मादर्थे - यस्मादेवं ततस्तस्मादेव । पूजा न कर्तव्येति चोदक इति ॥ ३४५॥ होता - उसका परिपालन भी होता है । इस कारण जहां अन्य साधर्मिक जन रहते हों वहाँ श्रावकका रहना श्रेयस्कर होता है || ३४२ || उक्त स्थान में रहते हुए श्रावकको प्रातः काल में प्रबुद्ध होकर क्या करना चाहिए, इसे दिखलाते हैं सोते से उठकर श्रावनको नमस्कारके साथ प्रबुद्ध होना चाहिए - शय्याको छोड़ते हुए पंचनमस्कार मन्त्रका उच्चारण करना चाहिए, 'मैं श्रावक हूँ' ऐसा स्मरण करना चाहिए, व्रत आदिमें योजित करना चाहिए - उसके विषय में मन, वचन व कायसे प्रवृत्त होना चाहिए, चैत्यवन्दन करते हुए गुरु आदिके समक्ष विधिपूर्वक प्रत्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए ||३४३॥ तत्पश्चात् उसे क्या करना चाहिए, यह आगे दिखलाते हैं प्रातःकाल उठते हुए स्वयं ही यह करके तत्पश्चात् चैत्योंकी पूजा आदि करे । फिर जिस प्रकार से प्रत्याख्यान को ग्रहण किया गया है उस प्रकारसे उसे साधुके समीप में ग्रहण करे || ३४४ || आगे जाके प्रसंग आगमसे अनभिज्ञके द्वारा जो शंका की जाती है उसे प्रकट करते हैंपूजा में कायवध - पृथिवोकायिक आदि जीवोंका घात - हो है, उसका आगम में 'समस्त काघात नहीं करना चाहिए' इस प्रकारसे निषेध किया गया है। इसके अतिरिक्त जो १. अ पुष्परूपादि । २. भ सो य णेय । ३. अ 'ऽपि किल' नास्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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