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________________ -३३८] श्रावकस्य निवासविषया सामाचारी २०७ आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य । जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥३३६॥ आह चोदकः कथं पुनर्मनसा करणं कारणमनुमतिश्चान्त-र्यापारत्वेन परैरनुपलक्ष्यमाणत्वादनुपपत्तिरित्यभिप्रायः। गुरुराह-यथा वाक्तनुयोगाभ्यां करणावयः करण-कारणानुमोदनानि । तथा भवेद् मनसापीति ॥३३६॥ कथमित्याह तयहीणता वय-तणुकरणाईण अहवा उ मणकरणं । सावज्जजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥३३७॥ तदधीनत्वादिति मनोयोगाधीनत्वात् वाक्तनुकरणादीनाम, तेन ह्यालोच्य वाचा कायेन वा करोति कारयति चेत्यादि अभिसंधिमन्तरेण प्रायस्तदनुपपत्तेः। प्रकारान्तरं चाह-अथवा मनःकरणम् । किम् ? सावद्ययोगमननं करोम्यहं एतदिति सपापव्यापारचिन्तनं प्रज्ञप्तं वीतरागै. रिति ॥३३७॥ कारवणं पुण मणसा चिंतेइ करेउ एस सावज्ज । चिंतेई य कए पुण सुटुकयं अणुमई होइ ॥३३८॥ कारवणं पुनर्मनसा चिन्तयति करोतु एष सावधं असावपि चेगितज्ञोऽभिप्रायात्प्रवर्तत एव । चिन्तयति च कृते पुनः सुष्ठुकृतमनुमतिर्भवति मानसो अभिप्रायज्ञो विजानात्यपीति ॥३३८॥ आगे प्रसंगानुरूप अन्य शंकाको उद्भावित करते हुए उसका समाधान किया जाता है इस प्रसंगमें कोई कहता है कि मनसे करना, कराना और अनुमति कैसे सम्भव है ? इसके उत्तरमें कहा गया है कि जैसे वचन और काय योगोंसे उक्त करना आदि होते हैं वैसे ही मनसे भी वे होते हैं ॥३३६॥ आगे इसे ही स्पष्ट किया जाता है वचन और शरीरसे सम्बद्ध करना आदि-करना, कराना और अनुमति-चूंकि उक्त मनके अधीन हैं, अर्थात् मनसे विचार किये बिना वचनसे व कायसे उक्त करना आदि सम्भव नहीं हैं, इसीलिए वचन और कायके समान मनसे भी उक्त करने आदि तीनको समझना चाहिए। अथवा सावद्ययोगका जो मनन है-'मैं करता हूँ' इस प्रकारका जो मनसे चिन्तन-होता है उसे वीतराग भगवान्ने मन करण कहा है॥३३७॥ आगे उसे और भी स्पष्ट किया जाता है 'यह मेरे सावध कार्यको करे' इस प्रकारका जो मनसे चिन्तन किया जाता है, यह मनसे कराना है। अभीष्ट कार्यके कर देनेपर फिर जो 'ठीक किया ऐसा मनसे विचार करता है, यह मनसे अनुमति है ॥३३८॥ विवेचन-शंकाकारका अभिप्राय था कि जिस प्रकार वचन और शरीरका व्यापार दूसरोंके द्वारा देखा जाता है उस प्रकार अन्तःकरण होनेसे मनके द्वारा क्या किया-कराया है, यह दूसरोंके लिए उपलक्ष्य नहीं है। अतः मनके द्वारा कृत, कारित व अनुमत सावद्यको कैसे समझा १. अ कथमित्यादि । २. अता वत्तित्तणुकरणादीणमहव मणकरणं । तु । ३. अ करेइ उ एस । ४. अचंतितज्ञो।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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