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________________ १५४ श्रावकप्रज्ञप्तिः थूलमुसावायस्स उ विरई दुच्चं ' स पंचहा होइ । कन्ना-गो-भुआलियनासहरणकूडसक्खिज्जे || २६०॥ स्थूलमृषावादस्य तु विरतिद्वितीयमणुव्रतमिति गम्यते । मृषावादो हि द्विविधः स्थूलः सूक्ष्मश्च । तत्र परिस्थूलवस्तुविषयोऽतिदुष्टविवक्षासमुद्भवः स्थूलो विपरीतस्त्वितरः । न च तेनेहाधिकारः, श्रावकधर्माधिकारत्वात्स्थूलस्यैव प्रक्रान्तत्वात् । तथा चाह - स पञ्चहा भवति स स्थूलो मृषावादः पञ्चप्रकारो भवति - कन्या- गो-भूम्यनृत-न्यासहरण- कूटसाक्षित्वानि । अनृतशब्दः " पदत्रये प्रत्येकमभिसंबध्यते । तद्यथा - कन्यानृतमित्यादि । तत्र कन्याविषयमनृतं कन्यानृतम्अन्य कामे भिन्नकन्यकां वक्ति विपर्ययो वा । एवं गवानृतम् - अल्पक्षीरामेव बहुक्षीरां वक्त विपर्ययो वा । एवं भूम्यनृतम् - परसत्कामेवात्मसत्कां वक्ति, व्यवहारे वा नियुक्तोSनाभवद्व्यवहारेणैव कस्यचिद्रागाद्यभिभूतो वक्ति अस्येयमाभवतीति । न्यस्यते निक्षिप्यत इति न्यासो रूपकाद्यर्पणम्, तस्यापहरणं न्यासापहारः । अदत्तादानरूपत्वादस्य कथं मृषावादत्वमिति ? उच्यते - अपलपतो मृषावाद इति । कूटसाक्षिकं उत्कोचमत्सराद्यभिभूतः प्रमाणीकृतः " सन् कूटं वक्तीति ॥ २६० ॥ [ २६० स्थूल मृषावाद (असत्यं भाषण ) की विरतिका नाम द्वितीय अणुव्रत है, जिसे सत्याणुव्रत कहा जाता है ! यह मृषावाद पाँच प्रकारका है— कन्याअलीक, गवालीक, भूमिअलीक, न्यासहरण और कूटसाक्ष्य | विवेचन - स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे अमत्यभाषण दो प्रकारका है। दूषित मनोवृत्तिसे वस्तुविषयक जो असत्यभाषण किया जाता है यह स्थूल मृषावाद कहलाता है। उदाहरणार्थ जो वस्तु अपने पास नहीं है व जिसे दिया नहीं जा सकता है उसके विषय में यह कहना कि 'मैं उसे कल दूंगा।' इसी प्रकार आवश्यकता पडनेपर किसीके पाससे रुपया-पैसा या अन्य कोई वस्तु लेना और वापस करते समय 'मैंने उसे लिया ही नहीं है, तुम झूठ बोलते हो' इत्यादि कहकर उसका अपलाप करना, इत्यादि सब उस स्थूल मृषावादके अन्तर्गत है । संक्षेप में उसे पांच रूप में व्यक्त किया गया है - (१) कन्याअलीक – कन्या के विषय बोलना । जैसे—किसी एक कन्याको दिखलाकर विवाहादिके समय वही कन्या बतलाकर दूसरीको उपस्थित करना । (२) गवालीक - कम दूध देनेवाली गायको अधिक दूध देनेवाली या अधिक दूध देनेवालीको कम दूध देनेवाली बतलाकर व्यवहार करना । (३) भूमिविषयक अलोक-जो भूमि अपनी नहीं है उसे अपनी बतलाकर और जो अपनी है उसे दूसरेकी बतलाकर बेचने व लेने आदिका व्यवहार करना । इसी प्रकार जो भूमिविषयक व्यवहार अपने सामने नहीं हुआ है उसे अपने सामने हुआ बतलाना । ( ४ ) न्यासहरण - आवश्यकतानुसार दूसरे द्वारा सुरक्षा आदि उद्देश्यसे रुपये-पैसे या सोना-चांदी रखा जाता है 'उसे मेरे पास नहीं रखा' इत्यादि कहकर उसका अपहरण कर लेना । जब कि इसे अदत्तादान समझकर चोरीमें गर्भित किया जा सकता था, पर चूंकि उसके सम्बन्ध में वैसा भाषण भी किया जाता है तथा बिना दिये ग्रहण भी नहीं किया जाता है, इसीलिए इसे न्यासापहार मृषावाद समझना चाहिए। (५) कूटसाक्ष्य - राग, द्वेष अथवा मत्सरता आदिके वश जो कृत्य अपने सामने नहीं हुआ है उसके विषयमें असत्य साक्षी देना आदि। इस पांच प्रकारके १. अविरतो दोच्चं । २. अ कूटसापेयकानि अनृतः शब्दः । ३. अ कन्याविषयमनृतमेवात्मसत्कां कन्यां नृतं अभिन्नकन्यकामेव । ४. अ माभवत्विति । ५. अ ' प्रमाणीकृतः' इत्येतन्नास्ति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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