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________________ -२५१] द्वितीयाणुव्रतप्ररूपणा १५३ वायाए वा भणेज्जा अज्ज ण ते देमि ति, संतिणिमित्तं वा उववासं कारावेज्जा। सव्वत्थ वि जयणा जहा थूलगपाणाइवायरस अइयारो न भवइ तहा पइयव्वंति ॥२५८॥ आह च-- परिसुद्धजलग्गहणं दारुय-धन्नाइयाण तह चेव । गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणट्टाए ॥२५९।। परिशुद्धजलग्रहणम्, वस्त्रपूतत्रसरहितजलग्रहणमित्यर्थः। दारु-धान्यादीनां च तथैव परि. शुद्धानां ग्रहणं अनोलाजीर्णानां दारूणाम्, अकोट-विशुद्धस्य धान्यस्य, आदिशब्दात्तथाविधोपस्करपरिग्रहः। गृहीतानामपि परिभोगो विधिना कर्तव्यः परिमितप्रत्युपेक्षितादिना । किमर्थम् ? त्रसरक्षणार्थ द्वीन्द्रियादिपालनार्थमिति ॥२५९॥ उक्तं सातिचारं प्रथमाणुव्रतम् अधुना द्वितीयमुच्यतेपीड़ित होकर वे कदाचित् मृत्युको प्राप्त न हो जायें। पुत्र आदिके हितकी दृष्टिसे वचनके द्वारा ही यह कहना चाहिए कि यदि पूरा नहीं होता है तो आज तुम्हें भोजन नहीं प्राप्त होगा। रोगसे पीड़ित होनेपर भी वचनसे सान्त्वना देना कि आज तुम्हें भोजन करना हितकर नहीं है। शान्तिके निमित्त उपवास भी कराया जा सकता है। पर यह सब यत्नाचारपूर्वक ही होना चाहिए, जिससे कि स्थूल प्राणातिपात व्रतके उक्त अति चारोंसे व्रतको सुरक्षित रखा जा सके। गाथामें जो 'क्रोधादिदूषितमन' यह विशेषण दिया गया है कि उसका भी अभिप्राय यही है कि उपर्युक्त सब कार्य सद्भावनाके साथ यत्नाचारपूर्वक प्रयोजन वश ही करना चाहिए, न कि निष्प्रयोजन व निर्दयताके साथ । इस प्रकारसे ही प्रकृत स्थूल प्राणातिपात अणुव्रतका निर्दोष पालन हो सकता है ।।२५८॥ आगे उस यत्नाचारका स्पष्टीकरण किया जाता हैं त्रस जोवोंकी रक्षाके लिए निर्मल जल और विशुद्ध लकड़ी एवं धान्य आदिका भी ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्रहण किये हुए पदार्थों का उपभोग भी विधिपूर्वक करना चाहिए। विवेचन-स्थूल प्राणातिपात अणुव्रतके धारक श्रावकको सभी प्रवृत्ति यत्नाचारपूर्वक होना चाहिए। उसमें त्रसजीवोंका विघात न हो, इसके लिए वह सदा सावधान रहता है। आवश्यकतानुसार जब वह जलको ग्रहण करता है तो वह उसे त्रसजीवोंसे रहित दोहरे छन्नेसे छानकर ग्रहण करता है। दो मुहूत के पश्चात् वह उसका उपयोग पुनः छानकर करता है। लकड़ियोंको जब वह जलानेके लिए ग्रहण करता है तब वह उन्हें बिना घुनी जीव-जन्तुओंसे रहित देखकर ही ग्रहण करता है व उनका उपयोग करता है। इसी प्रकार वह गेहूँ, चावल, उड़द व मूंग आदि धान्यविशेषोंको निर्धन व जन्तुओंसे रहित ग्रहण करता है व उनका उपयोग भी अतिशय सावधानतापूर्वक करता है। रात्रिमें पिसाने, भोजन बनाने व खानेका भी वह परित्याग करता है। ये कुछ ही यहाँ उदाहरण दिये गये हैं। उसका सभी आचरण प्राणिरक्षाकी सदभावनासे होता है। इसके बिना उसका वह स्थल प्राणातिव्रत निर्दोष नहीं रह सकता है ।।२५९॥ ___इस प्रकार अतिचार सहित प्रथम अणुव्रतका विवेचन करके अब द्वितीय अणुव्रतके स्वरूप को दिखलाते हैं
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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