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________________ १५५ -२६२] तृतीयाणुव्रतप्ररूपणा वज्जणमिह पुव्वुत्तं आह कुमाराइगोयरो कह णु । एयग्गहणाउ च्चिय गहिओ नणु सो वि दिट्ठव्वो ॥२६१॥ वर्जनमिह मृषावादे । पूर्वोक्तं "उवउत्तो गुरुमूले" इत्यादिना ग्रन्थेन । आह परःकुमारादिगोचरः कथं नु ? अकुमारं कुमारं अवतः, आदिशब्दादविधवाद्यनृतपरिग्रहः । अतिवृष्टविवक्षासमुद्भवोऽप्येष भवति, न तु सूत्रे उपात्तः। तदेतत्कथम् ? आचार्य आह-एतद्ग्रहणादेव च कन्यानृतादिग्रहणादेव च । ननु गृहीतोऽसावपि कुमारादिगोचरो मृषावादो द्रष्टव्यः, उपलक्षणत्वादिति ॥२६१॥ पडिवज्जिऊण य वयं तस्सइयारे जहाविहिं नाउं । संपुन्नपालणट्ठा परिहरियव्वा पयत्तेणं ॥२६२॥ असत्य भाषणका परित्याग करना, इसे सत्याणुव्रत कहा जाता है। यद्यपि कन्याके समान कुमार और गायके समान भैंस आदिके विषयमें भी असत्य सम्भाषण सम्भव है, फिर भी उन्हें यथासम्भव इन पांचके ही अन्तर्गत समझना चाहिए ॥२६०॥ आगे इस द्वितीय अणुव्रतके पालन करने की विधिका संकेत करते हुए कन्यालीक आदिके साथ कुमारादिविषयक अलीकको भी क्यों नहीं ग्रहण किया, इसे स्पष्ट किया जाता है पूर्वमें अहिंसाणुव्रतके परिपालनको जो विधि निर्दिष्ट को गयो है (१०८) तदनुसार हो इस द्वितीय सत्याणुव्रतमें भी असत्यभाषणका परित्याग करते उसका पालन करना चाहिए। यहां शंकाकार कहता है कि उपर्युक्त कन्यालीक आदिके साथ कुमारादिविषयक अलीकको भी क्यों नही ग्रहण किया गया ? इसके इत्तरम यहाँ कहा गया है कि उक्त कन्यालीक आदिके ग्रहणसे ही कूमारादिविषयक अलोकको भी ग्रहण किया गया समझ लेना चाहिए। विवेचन-जैसा कि पूर्वमें ( १०८) स्थूलप्राणातिपात अणुव्रतके प्रसंगमें कहा गया है तदनुसार इस द्वितीय अणुव्रतमे भो आचायके समक्ष प्रमादको छोड़कर मोक्षकी अभिलाषासे चातुर्मासादिरूप कुछ नियत काल के लिए अथवा जावनपर्यन्तके लिए असत्यभाषणका परित्याग करना चाहिए और उसका स्मरण रखते हुए विशुद्ध पारणामोंक साथ पालन भी करना चाहिए। यहां शंका उपस्थित होती है कि जिस प्रकार असत्य वचनक अन्तर्गत कन्यालीकको ग्रहण किया गया है उसी प्रकार कुमारादि विषयकअलाकको ग्रहण करना चाहिए था, क्योकि ला में दुष्ट बुद्धिसे कुमार और विधवा आदिके विषयमें असत्य भाषण करते हुए देखा जाता है। किन्तु उसको जो यहां ग्रहण नहीं किया गया है उसका क्या कारण है ? इसक उत्तरमें यहां कहा गया है कि कन्या व गोपद आदि यहाँ उपलक्षण हैं। उनस कुमार आदि द्विपदोंको व भैंस आदि चतुष्पदोंको भो ग्रहण कर लिया गया समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार लोकव्यवहारमें 'बिल्लासे दूधको बचाना' ऐसा कहनेपर दूधके भक्षक सभा प्राणियासे उसके संरक्षणका अभिप्राय रहता है उसो प्रकार प्रकृतमें भी कन्यालोक व गवालोक आदि पदोंका भी अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए। यहा कारण है जो कुमार व विधवा आदि द्विपदोंको तथा भैंस आदि चतुष्पदोंको पृथक्से नहो ग्रहण किया गया। अतएव तद्विषयक असत्यभाषणके परित्यागको भी इस द्वितीय अणुव्रतके अन्तर्गत समझ लेना चाहिए ।।।।२६१॥ ____ आगे प्रकृत व्रतको स्वीकार कर व उसका निर्दोष परिपालन करनेके लिए उसके अतिचारोंको जानकर उनके परित्यागके लिए प्रेरणा की जाती है
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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