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________________ - २१७ ] कर्मायत्तस्य वर्धकस्य नास्त्यपराध इत्येतन्निराकरणम् १३१ तत एव वधविरतेः । स भावः चित्तपरिणामलक्षणः । जायते शुद्धेन जीववीर्येण कर्मानभिभूतेनात्मसामर्थ्येन । कस्यचित्प्राणिनः । येन भावेन । तकं व्यापाद्यम् । अवधित्वा अहत्वैव । गच्छति मोक्षं प्राप्नोति निर्वाणमिति ॥ २१५ ॥ इय तस्स तयं कम्मं न जहकयफलं ति पावई अह तु । तं नो अज्झवसाणा ओवट्टणमाइभावाओं ॥ २१६ ॥ इय एवमुक्तेन न्यायेन । तस्य व्यापाद्यस्य तत्कर्म अस्मान्मर्तव्यमित्यादिलक्षणम् । न यथाकृतफलमेव ततो मरणाभावात्प्राप्नोत्यापद्यते । अथ त्वमेवं मन्यसे इत्याशङ्कयाह तन्न तदेतन्न, अध्यवसायात्तथाविधचित्तविशेषादपवर्तनादिभावात्तथा हास-संक्रमानुभव श्रेणिवेदनादिति गाथार्थः ॥२१६॥ सकयं पि अणेगविहं तेण पगारेण भुंजिउं सव्वं । अव्वकरण जोगा पावइ मुक्खं तु किं तेण ॥ २१७॥ किं च स्वकृतमध्यात्मोपात्तमप्यनेकविधं चतुर्गतिनिबन्धनम् । तेन प्रकारेण चतुर्गतिवेद्य उस वधविरतिसे किसी जीवके निर्मल आत्माके सामर्थ्यसे वह परिणाम प्रादुर्भूत होता है। कि जिसके आश्रयसे वह उस प्राणीका घात न करके मोक्षको प्राप्त कर लेता है । विवेचन—यह ऐकान्तिक नियम नहीं है कि जिसने अमुक ( देवदत्त आदि ) के हाथसे मारे जानेरूप आयु कर्मको बाँधा है वह उसीके द्वारा मारा जाये । कारण यह कि उस वधक के ग्रहण करायी गयी. वधको विरतिसे कदाचित् निर्मल आत्मपरिणामके बल से वह भाव उत्पन्न होता है कि जिसके प्रभावसे वह उस वध्य प्राणोका घात न करके मुक्तिको प्राप्त कर लेता है ।।२१५ ।। इसपर वादीके द्वारा जो आशंका उठायो गयी है उसका निराकरण किया जाता है--- वादी कहता है कि इस प्रकारसे तो उस वध्य प्राणोके द्वारा जिस प्रकारके फलसे युक्त कर्मको किया गया है उसके उस प्रकारके फलसे रहित हो जानेका प्रसंग प्राप्त होगा। इसके समाधान में यहाँ यह कहा जा रहा है कि ऐसा नहीं है, क्योंकि अध्यवसायके वश - उस प्रकारकी चित्तकी विशेषतासे - प्राणो के उक्त कर्मके विषय में अपवर्तन आदि सम्भव हैं । विवेचन - वादीके कहने का अभिप्राय यह था कि वध्य प्राणीने 'मैं अमुकके हाथों मारा जाऊंगा' इस प्रकारके कर्मको बांधा था, पर वधको विरतिके प्रभावसे जब वह उसके द्वारा नहो मारा गया तब वह उसका कर्म निरर्थकताको क्यों न प्राप्त होगा ? इसका समाधान करते हुए यहाँ यह कहा गया है कि प्राणी जिस प्रकारके विपाकसे युक्त कर्मको बाँधता है उसमे आत्माक परिणाम विशेष से अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण आदि भी सम्भव हैं । अतएव जो कर्म जिस रूपसे बाँधा गया है उसकी स्थिति में होनाधिकता हो जानेसे अथवा उसके अन्य प्रकृतिरूप परिणत हो जाने के कारण यदि उसने वैसा फल नहीं दिया तो इसमें कोई विरोध सम्भव नहीं है || २१६॥ इसके अतिरिक्त स्वकृत भो जो अनेक प्रकारका कर्म है उस सबको उस प्रकारसे न भोगकर अपूर्वकरणके सम्बन्धसे जीव मोक्षको पा लेता है। फिर भला उस कमसे क्या होनेवाला है ? कुछ भी नहीं । विवेचन - पूर्व गाथा में यह कहा जा चुका है कि मारे जानेवाले प्राणीने 'मैं अमुक (देवदत्त १. अ कम्मं ण य जहं । २. भ अन्ना अवन्भणसाणा अपवत्तणमादिभावाउ ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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