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________________ १३० श्रावकप्रज्ञप्तिः [२१३ - अत्रोत्तरमाह नियकयकम्मुवभोगे वि संकिलेसो धुवं 'वहंतस्स । तत्तो बंधो तं खलु तविरईए विवज्जिज्जा ॥२१३॥ निजकृतकर्मोपभोगेऽपि व्यापाद्यव्यापत्तौ स्वकृतकर्मविपाकेऽपि सति । तस्य संक्लेशो. ऽकुशलपरिणामो ध्रवमवश्यं नतो व्यापादयतस्ततस्तस्मात्संक्लेशाद्बन्धस्तं खलु तमेव बन्धम् । तद्विरत्या वधविरत्या वर्जयेदिति ॥२१३॥ तत्तु च्चिय मरियव्वं इय बद्धे आउयंमि तश्विरई । नणु किं साहेइ फलं तदारओ कम्मखवणं तु ॥२४॥ तत एव देवदत्तादेः सकाशात् । मर्तव्यम् इय एवमनेन प्रकारेण । बद्धे आयुषि उपात्ते आयुष्कर्मणि व्यापाद्येन । वधविरतिर्ननु किं साधयति फलम्, तस्यावश्यभावित्वेन तदसंभवात् विरत्यसंभवात् ? न किंचिदित्यभिप्रायः । अत्रोतरम्-तदारतः कर्मक्षपणं तु मरणकालादारतः वधविरतिः कर्म यमेव साधयतीति गाथार्थः ॥२१४॥ एतदेव भावयति तत्त च्चिय सो भावो जायइ सुद्धेण जीववीरिएण । कस्सइ जेणं तयं खलु अवहित्ता गच्छई मुक्खं ॥२१५॥ गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि मारे जानेवाले प्राणोने जिस प्रकारके कर्मको उपार्जित किया है तदनुसार हो वह अमुक वधके द्वारा मारा जाता है। इसलिए इसमें जब मारनेवालेका कुछ अपराध नहीं है तब उक्त प्रकारसे वधकको निवृत्ति कराना व्यर्थ है। इस वादीने उपर्युक्त चार गाथाओंमें अपने पूर्व पक्षको स्थापित किया है ॥२०२-२१२।। आगे वादीके इस अभिमतका निराकरण किया जाता है स्वकृत कर्मके उपभोगमें भी वध करनेवालेके परिणाममें निश्चयसे जो संक्लेश होता है उससे उसके कर्मका बन्ध होता है। उसे उस वधका व्रत करानेसे छुड़ाया जाता है। विवेचन-जो प्राणी किसी वधकके हाथों मारा जाता है वह यद्यपि अपने द्वारा किये गये कर्मके ही उदयसे मारा जाता है व तज्जन्य दुखको भोगता है, फिर भी इस क्रूर कार्यसे मारनेवालेके अन्तःकरणमें जो संक्लेश परिणाम होता है उससे निश्चित ही उसके पाप कर्म का बन्ध होनेवाला है। उपर्युक्त उस वधविरतिके द्वारा उसे इस पाप कर्मके बन्धसे बचाया जाता है जो उसके लिए सर्वथा हितकर है ॥२१३!! आगे वादीको ओरसे प्रसंगप्राप्त शंकाको उठाकर उसका समाधान किया जाता है___ वादी पूछता है कि मरनेवाले प्राणीने जब उसके निमित्तसे ही मारे जाने रूप आयु कर्मको बांधा है तब उसके होते हुए वधकी विरति करानेसे कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? उसका कुछ भी फल नहीं है । कारण यह कि उक्त प्रकारसे बांधे गये कर्म के अनुसार उसे उसीके हाथों मरना पड़ेगा। वादोकी इस शंकाके उत्तरमें यहां यह कहा गया है कि मरणकालके पूर्व में ग्रहण करायी उस वधकी विरतिसे उसके कर्मका क्षय होनेवाला है, यही उस वधविरतिका फल है ॥२१४॥ इसे आगे स्पष्ट किया है१. अनियकम्म कम्मवि भोग वि संकिलेसे साहवं । २. अ आउगंमि । ३. अ जायइ तुट्रेण जीवविरिण । ४. अजणेण ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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