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________________ ११० श्रावकप्रज्ञप्तिः [१७५ - यस्मादेवम् तम्हा विसुद्धचित्ता जिणवयणविहीइ दोवि सद्धाला। वहविरइसमुज्जुत्ता पावं छिदंति धिइबलिणो॥१७॥ तस्माद्विशुद्धचित्तौ अपेक्षारहितौ' जिनवचनविधिना प्रवचनोक्तेन प्रकारेण । द्वावपि प्रत्याख्यात प्रत्याख्यापयितारौ। श्रद्धावन्तौ वधविरतिसमुद्युक्ती यथाशक्त्या पालनोद्यतौ। पापं छिन्तः कर्म क्षपयतः। धृतिबलिनौ अप्रतिपतितपरिणामाविति ॥१७५॥ सांप्रतमन्यद्वावस्थानकम् निच्चाण वहाभावा पयइअणिच्चाण चेव निव्विसया । एगंतेणेव इहं वहविरई केइ मन्नंति ॥१७६॥ जीवाः किल नित्या वा स्युरनित्या वेत्युभयथापि दोषः-नित्यानां वधाभावात, प्रकृत्यनित्यानां चैव स्वभावभङ्गराणां चैव वधाभावात् । निविषया निरालम्बना। एकान्तेनैव । अत्र पक्षद्वये । का वधविरतिः ? संभवाभावात् । केचन वादिनो भन्यन्त इति ॥१७६॥ एतदेव भावयतिकथनमें यहां अनेक दोषोंको दिखलाया गया है । आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे तो कभी किसीके द्वारा कोई कार्य ही नहीं किया जा सकता है ॥१७४।। आगे इसका उपसंहार किया जाता है इसलिए-अनुभवादिकसे विरुद्ध होनेके कारण वादीके उपयुक्त कथनको हेय जानकर चित्तकी विशुद्धि पूर्वक श्रद्धान करनेवाले दोनों प्रत्याख्याता और प्रत्याख्यान करानेवाला ये दोनों ही जिनागमोक्त विधिके साथ वधको विरतिमें उद्यत होकर धैर्यके बलसे पापको नष्ट करते हैं ॥१७५।। आगे दूसरे किन्हीं वादियोंके अभिमतको प्रकट करते हुए वादीको ओर उस प्रसंग प्राप्त वधविरतिको निर्विषय ठहराया जाता है वादीके अभिमतानुसार नित्य जीवोंके वधके असम्भव होनेसे तथा प्रकृतिसे अनित्य जीवोंके स्वयं विनश्वर होने के कारण वह वधकी विरति सर्वथा निविषय है-उसका कोई विषय ( वध्य ) ही नहीं है। इसीलिये कितने ही वादो उस विरतिको निरर्थक मानते हैं। ___ विवेचन-यहाँ वादी वविरतिको निरर्थक ठहराता हुआ यह पूछता है कि जीव नित्य हैं या अनित्य ? यदि वे नित्य हैं--एक ही स्वभावसे सदा अवस्थित रहनेवाले हैं-तब तो उनका वध हो ही नहीं सकता। और यदि उनका वध होता है तो वैसी स्थितिमें उनकी नित्यताकी हानि होती है, क्योंकि उत्पन्न व विनष्ट न होकर सदा एक ही स्वरूपसे स्थित रहना, यह नि का लक्षण है। तब यदि उन्हें अनित्य स्वीकार किया जाता है तो स्वभावतः जो नष्ट होनेवाले हैं उनका भी वध कैसे सम्भव है ? उनका भी वध सम्भव नहीं है। इस प्रकार उक्त दोनों हो पक्षोंमें जब वधकी सम्भावना नहीं है तब उस वधकी विरति करना निरर्थक है ॥१७६।। आगे वादो अपने इसी अभिप्रायको स्पष्ट करता है१. अचित्तो अपेक्षा तो जिन'।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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