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________________ - १७४] वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः १०९ अणि वित्ती वि हु एवं कह कायव्व त्ति भणियदोषाओ। आलोयणं पि अवराहसंभवाओ ण जुत्तं ति ॥१७३॥ अनिवृत्तिरप्येवं कथं कर्तव्येति भणितदोषानिवृत्तित एव राजमयूरादिव्यापादनेन वोषसंभवात् । आलोचनमपि प्रागुपदिष्टम् आत्यन्तिककार्यविघ्नत्वात् किमप्येते आलोचयन्तीति चान्यापकारप्रवृत्तेरपराधसंभवान्न युक्तमेवेति ॥१७३॥ उपसंहरन्नाह इय अणुभवलोगागमविरुद्धमेयं न नायसमयाणं । मइविन्भमस्स हेऊ वयणं भावत्थनिस्सारं ॥१७४।। इय एवं अनुभवलोकागमविरुद्धमेतत्-निवृत्तौ परिणामशुद्धयनुभवादनुभवविरुद्धम्, समुद्रादिप्रतरणादिप्रवृत्तेर्लोकविरुद्धम्, यस्य कस्यचिद्विधानादागमविरुद्धम् एतत्पूर्वपक्षवादिवचनमिति योगः। न ज्ञातसमयानां नावगतसिद्धान्तानां मतिविभ्रमस्य हेनुः कथमेतच्छोभनं मतिविप्लवस्य कारणम्, किंविशिष्टं वचनम् ? भावार्थनिस्सारं अभिप्रेतगर्भार्थशून्यमिति ॥१७४॥ उक्त दोषसे अनिवृत्ति भी कैसे रह सकती है, इसे आगे स्पष्ट किया जाता है जिन दोषोंका निर्देश किया जा चुका है उन्हीं दोषोंके कारण अनिवृत्ति-प्राणवधका अप्रत्याख्यान-भी कैसे किया जा सकता है ? वह भी सम्भव नहीं होगा। इसके अतिरिक्त अपराधकी सम्भावनासे आलोचना करना भी, जिसका कि निर्देश वादीके द्वारा पूर्वमें (१६७) किया गया है, योग्य नहीं होगी ॥१७३।। उपर्युक्त वादीका अभिमत अनुभव आदिके भी विरुद्ध है, इसका निर्देश आगे किया जाता है वादीका यह कथन अनुभव, लोक और आगमके भी विरुद्ध है। इसलिए वह आगमके ज्ञाताजनोंके लिए बुद्धिभ्रमका कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि वह वचन भावार्थसे निःसार हैयथार्थ वस्तुस्वरूपक प्रतिपादनसे रहित है। विवेचन-अन्य कितने ही वादियोंके द्वारा यह कहा जाता है कि प्राणवधकी निवृत्तिसे चूंकि कितने ही आगन्तुक दोषोंकी सम्भावना है, इसलिए उसकी निवृत्तिको ग्रहण करने और करानेवाले दोनोंके ही लिए वह पापजनक है। उनका यह कहना अनुभव, लोक और आगमसे विरुद्ध है। इसका कारण यह है कि जितने अंशमें प्राणातिपातादि पापोंका परित्याग किया जाता है उतने अंशमें परिणामोंमें अधिक निर्मलताका अनुभव होता है। इसलिए उस प्राणवधकी वृत्तिको पापजनक बतलाना उस अनुभवके विरुद्ध है। लोकमें कितने ही साहसी पुरुष समुद्र आदिको पार करते हुए देखे जाते हैं, अतः मरणादि रूप आगन्तुक दोषोंकी सम्भावनासे उक्त निवृत्तिको पापोत्पादक कहना, यह लोकके विरुद्ध है। उस प्राणिवधादिकी निवृत्तिका आगममें जहां तहां विधान किया गया है, अतः उसे आगन्तुक दोषोंकी शंकासे पापजनक बतलाना आगमके भी विरुद्ध है। इसीलिए जिन्होंने आगमके आश्रयसे वस्तुके यथार्थ स्वरूपको समझ लिया है उनकी बुद्धि तो तत्त्वविचारसे रहित इस अनुभव, लोक और आगम विरुद्ध कथनसे भ्रमित होनेवाली नहीं है, पर जो मन्दबुद्धि जन हैं वे कदाचित् भ्रमको प्राप्त हो सकते हैं। इसलिए उक्त १. अ दोषादि । २. अ समुद्रादिप्रवृत्तेर्लोक ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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