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________________ -१७९] वधासम्भवत्ववादिनामभिमतनिरासः एगसहावो निच्चो तस्स कह वहो अणिच्चभावाओ। पयइअणिच्चस्स वि अन्नहेऊभावाणवेक्खाओ ॥१७७॥ एकस्वभावोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकधर्मा नित्यः। तस्य कथं वधः जिघांसनमनित्यभावा. दतादवस्थो नानित्यत्वापत्तरित्यर्थः। प्रकृत्यनित्यस्यापि स्वभावतोऽप्यनित्यस्य । कथं वध इति वर्तते। कथं च नेत्याह-अन्यहेतुभावानपेक्षातः' स्वव्यतिरिक्तहेतुसत्तानपेक्षत्वात्, तत्स्वभावत्वे च स्वत एव निवृत्तरिति ॥१७७॥ . प्रक्रान्तोपचयमाह किं च सरीरा जीवो अन्नो णन्नो व हुज्ज जइ अन्नो। ता कह देहवहंमि वि तस्स वहो घडविणासेव्व ॥१७८॥ कि चान्यच्छरोरात्सकाशाज्जीवोऽन्योऽनन्यो वा भवेत् द्वयी गतिः। कि चातः यद्यन्यस्तत्कथम् वेहवधे प्रकृतिविकारत्वेनार्थान्तरभूतदेहविनाशे तस्य जीवस्य वधो नैवेत्यर्थः, घटविनाश इव-न हि घटे विनाशिते जीववधो दृष्टः, तदर्थान्तरस्वादिति ॥१७॥ द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह अह उ अणनो देह व्व सो तओ सव्वहा विणस्सिज्जा । एवं न पुण्णपावा वहविरई किंनिमित्ता में ॥१७९॥ अथ त्वनन्यः शरीराज्जीव इत्येतदाशङ्कयाह-देह इवासौ ततः अनन्यत्वाद्धेतोः सर्वथा विनश्येत् । शरीरं च विनश्यत्येव, न परलोकयायि । एवं च न पुण्यपापे, भोक्तुरभावात् । वध जो सदा एक ही स्वभावसे स्थित रहता है उसे नित्य माना जाता है, तदनुसार उसका वध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। अन्यथा, अनित्यताका प्रसंग दुनिवार प्राप्त होगा। इससे यदि उक्त जीवको अनित्य माना जाता है तो जो प्रकृतिसे अनित्य है-स्वभावतः क्षणनश्वर हैउसका भी वध कैसे सम्भव है? उसका भी वध सम्भव नहीं है, क्योंकि वह अपने विनाशमें किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं रखता। इस प्रकार जेसे नित्य माननेपर उन जीवोंका वध सम्भव नहीं वैसे ही अनित्य माननेपर भी उनका वध नहीं सम्भव है। ऐसी अवस्थामें उनके वधकी विरति करना व कराना निरर्थक है ।।१७७॥ आगे वादी जीवको शरीरसे भिन्न माननेपर उसके वधको असम्भवताको प्रकट करता है__ इसके अतिरिक्त जीव क्या शरीरसे भिन्न है या अभिन्न? यदि वह शरीरसे भिन्न है तो शरीरका वध करनेपर उससे भिन्न उस जीवका वध कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, क्योंकि जैसे घटका विनाश करनेपर उससे भिन्न जीवका कभी विनाश नहीं होता है वैसे ही शरीरके विनष्ट होनेपर उससे भिन्न जीवका विनाश नहीं हो सकता ॥१७८॥ __ आगे शरीरसे उसे अभिन्न माननेपर भी वादी दोष दिखलाता है वह कहता है-यदि जीव शरीरसे अभिन्न है तो जैसे शरीर सर्वथा विनष्ट हो जाता है वैसे ही उस शरीरसे अभिन्न जीव भी सर्वथा विनष्ट हो जावेगा। तब इस प्रकारसे शरीरके समान ही उस जीवके सर्वथा नष्ट हो जानेपर परलोकमें गमनके असम्भव हो जानेसे-निराश्रय १. म हेतुभावादनापेक्षातः । २. अ देहो । ३. अ विणासोज्जा। ४. अहि।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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