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________________ सामान्येन प्राणवधविरती शंका समाधानम् ९१ यस्मादेवं तत्तस्मात् । प्राणवधनिवृत्तिर्नाविशेषेण भवति कर्तव्या, अपि च सुखितेंषु सुखितविषये कर्तव्या, तद्व्यापादन एव दोषसंभवात् । अन्यथा यद्येवं न क्रियते ततः । करणीयनिषेधने दोषः कर्तव्यो हि परलोकार्थिना दुःखितानां पापक्षयः, तन्निवृत्तिकरणे प्रव्रज्यादिदाननिवृत्तिकरणवद्दोष इत्येष पूर्वपक्ष: ॥ १३४ ॥ अत्रोत्तरमाह - १३६ ] भावे पावक्खओ त्ति न उ अट्टज्झाणओ बंधो । सिमिह किं प्रमाणं नारगनाओवगं वयणं ॥ १३५ ॥ तथा तेन प्रकारेण । वधभावे व्यापत्तिकरणे । पापक्षय एव न त्वार्तध्यानतो बन्धस्तेषां दुःखितानामपि । कि प्रमाणम् ? न किचिदित्यर्थः । अत्राह - नारकन्यायोपगं वचनं नारकन्यायानुसारि वचनं प्रमाणमिति ॥ १३५ ॥ एतदेव भावयति तेसिं वहिज्जमान वि परमाहम्मिअसुरेहि अणवरयं । रुदज्झाणगयाणवि न तो बंधो जहा विगमो ॥ १३६ ॥ | चाहिए, किन्तु सुखी जीवोंके विषय में उस वधके प्रत्याख्यानको कराना चाहिए, अन्यथा कर्तव्य कार्यका निषेध करनेपर दोषका होना अनिवार्य है । विवेचन - इस प्रसंग में संसारमोचकों का कहना है कि सामान्यसे प्राणियोंके वधका परित्याग कराया जाता है वह उचित नहीं है । परित्याग वास्तवमें सुखी जीवोंके वधका कराना चाहिए था, न कि कृमि-पिपीलिका आदि उन दुखी जीवोंके वधका भी जो पापके कारण संसारमें परिभ्रमण कर रहे हैं । कारण यह कि उनके वधसे जिस पापके कारण वे संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं उस पापका क्षय होनेवाला है । अतएव यह कर्तव्य कार्यके अन्तर्गत है । इस वस्तुस्थिति के होनेपर भी यदि सुखी व दुखोकी विशेषता न करके सामान्यसे ही प्राणियों के प्राणवधका परित्याग कराया जाता है तो इससे दुखी प्राणियोंके वधका भी, जो अवश्य करणीय था, निषेध हो जाता है । इस अवश्य करणीय कार्यका निषेध करना, यह ऐसा दोषजनक है जैसा कि दीक्षा आदि सत्कार्यो का निषेध । इस अपराधसे बचनेके लिए विशेषताक साथ सुखी जीवोंके हो वधका परित्याग कराना उचित है, न कि दुखी जीवोंके वधका, क्योंकि जीवित रहनेपर वे उस पाप से छुटकारा नहीं पा सकते हैं ॥ १३३-३४॥ वादीके इस पूर्वपक्ष निषेधके प्रसंग में वादीका प्रत्युत्तर इस पूर्वपक्ष के प्रसंग में वादीसे पूछा जाता है कि उस प्रकारसे दुखी जीवोका वध करनेपर उनके पापका क्षय ही होगा, किन्तु आतंध्यानके निमित्तसे उनके कर्मका बन्ध नहीं होगा, इसमे क्या प्रमाण है ? इस प्रश्नके प्रत्युत्तर में वादी कहता है कि उसमें नारकन्यायका अनुसरण करनेवाला वचन ही प्रमाण है ॥ १३५ ॥ आगे वादी इस नारकन्याय वचनको ही स्पष्ट करता है परम अधार्मिक सुरोंके द्वारा - अतिशय संक्लिष्ट, अम्ब व अम्बरीष आदि पन्द्रह प्रकार के असुरकुमार देवोंके द्वारा - निरन्तर पीड़ित किये जानेपर रौद्रध्यानको प्राप्त होनेपर भी उन १. भ तेशि वहअताण वि परमाहंपियसुरेहि । २. भ दोटूज्जाणवण तहा ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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