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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१३२ - न य सइ तसभावंमि थावरकायगयं तु सो वहइ । तम्हा अणायमेयं मुद्धमइविलोहणं नेयं ॥१३२॥ न च सति त्रसभावे नैव विद्यमान एव त्रसत्वे । स्थावरकायगतमसौ हन्ति', अपरित्यक्ते त्रसत्वे स्थावरकायगमनाभावात् । तस्मादज्ञातमेतत् उक्तन्यायादनुदाहरणमेतत् । मुग्धतिविलो. भनं ज्ञेयं ऋजुमतिविस्मयकरं ज्ञातव्यमिति ॥१३२॥ इदानीम् अन्यद्वादस्थानकम् अन्ने उ दुहियसत्ता संसारं परिअडंति पावेण । वावाएयव्वा खलु ते तक्खवणट्ठया विति ॥१३३॥ अन्ये तु संसारमोचका ब्रुवत' इति योगः। किं ब्रुवत इत्याह-दुःखितसत्त्वाः कृमि पिपीलिकादयः। संसारं पर्यटन्ति संसारमवगाहन्ते । पापेनापुण्येन हेतुना । यतश्चैवमतो व्यापादयितव्याः खलु ते । खल्वित्यवधारणे-व्यापादयितव्या एव ते दुःखितसत्वाः । किमर्थमित्याह- तत्क्षपणार्थ पापक्षपणनिमित्तमिति ॥१३३॥ ता पाणवहनिवित्तो नो अविसेसेण होइ कायव्वा । अवि अ सुहिएसु अन्नह करणिज्जनिसेहणे दोसो ॥१३४।। इसीको आगे कूछ और स्पष्ट किया जाता है इसके अतिरिक्त सघातका प्रत्याख्यान करनेवाला वह श्रावक त्रस अवस्थाके रहनेपर कुछ उस स्थावरकायको प्राप्त हुए जीवका घात नहीं करता है। इसलिए यह नागरिकवधका उदाहरण वस्तुतः उदाहरण न होकर मूढ़बुद्धियोंको लुब्ध करनेवाला अनुदाहरण हो समझना चाहिए । .. विवेचन-यह पूर्वमें (१३०) कहा जा चुका है कि जिन जीवोंके त्रस नामकर्मका उदय रहता है वे त्रस कहलाते हैं। इससे जो जीव मरणको प्राप्त होते हुए स्थावरकायको प्राप्त होते हैं वे त्रस नहीं रहते, किन्तु स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर होते हैं। इस प्रकार त्रस पर्यायके विनष्ट हो जानेपर यदि त्रस प्राणिवधका प्रत्याख्यान करनेवाला कोई श्रावक प्रयोजनवश उनका घात करता है तो इससे उसका वह व्रत भंग होनेवाला नहीं है। वादीके अभिमतानुसार 'भूत' शब्दका प्रयोग करनेपर भी वे त्रस नहीं हो सकते, किन्तु स्थावर नामकर्मके उदयसे वे स्थावर ही रहनेवाले हैं। कारण यह कि त्रस पर्यायके रहते हुए कोई जीव स्थावर हो ही नहीं सकता। इससे यह निश्चित है कि नागरिकवधका वह उदाहरण यथार्थमें उदाहरण नहीं है। इस प्रकार प्रथम अणुव्रतको ग्रहण कराते हुए जो श्रावकसे त्रस प्राणियोंके वधका प्रत्याख्यान कराया जाता है वह सर्वथा निर्दोष है, यह सिद्ध होता है ।।१३२॥ अब यहां अन्य वादियोंके अभिमतको दिखलाते हैं अन्य कितने ही वादो (संसारमोचक ) यह कहते हैं कि दुखी प्राणी चूंकि पापसे संसारमें परिभ्रमण करते हैं अतएव उनका उस पापके क्षयके निमित्त घात करना चाहिए ।।१३३। इससे उन वादियोंको क्या अभीष्ट है, इसे आगेकी गाथा द्वारा स्पष्ट किया जाता है इससे प्राणियोंके प्राणवधका प्रत्याख्यान बिना विशेषताके-सामान्यसे-नहीं कराना १. भ हवंती। २. अ मुखमति । ३. भ इदानी द्वादशस्थानकं । ४. अ वेति । ५. अ व्रतते । ६. अ हेतुना नायचस्सैव । ७. भ धारणे व्यापादनीया एव ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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