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________________ A७ - १२७] त्रसप्राणघातविरती शंका-समाधानम् अतसवहनिवित्तीए थावरचाए वि पावए तस्स । वहविरइभंगदोसो अतसत्ता थावराणं तु ॥१२६॥ उक्तन्यायावत्रसवधनिवृत्तौ सत्याम् । स्थावरवधेऽपि कृते । प्राप्नोति तस्य निवृत्तिकर्तुबंधविरतिभङ्गदोषः । कुतः ? अत्रसत्वात्स्थावराणामेव अत्रसाश्च त्रसभूता भवन्तीति ॥१२॥ अवसितः औपम्यपक्षः, सांप्रतं तादथ्यपक्षमाह तादत्थे पुण एसो सीईभूयमुदगंति निद्दिद्यो । तज्जाइअणुच्छेया न य सो तसथावराणं तु ॥१२७॥ इस प्रकार अत्रसवधको निवृत्तिके होनेपर अर्थात् उपमार्थक 'भूत' शब्दसे विशेषित करनेपर जो यथार्थमें त्रस हैं। वे तो त्रस नहीं रहेंगे, किन्तु जो सोंके समान हैं-अत्रस हैं-वे त्रस माने जायेंगे, इस प्रकार वह त्रसवधनिवृत्ति न होकर अत्रसवधनिवृत्ति ही प्रसक्त होगी। ऐसा होनेपर स्थावर जीवोंके घातमें भी उस अत्रसवधनिवृत्ति व्रतके भंग होनेका प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होगा, क्योंकि वे घाते जानेवाले स्थावर अत्रस ( त्रसभिन्न ) ही तो हैं ॥१२६॥ विवेचन-वादीने सामान्यसे त्रसजीवोंके वधका प्रत्याख्यान करनेपर व्रतके भंग होनेका प्रसंग प्रदर्शित करते हुए जो उसके परिहाराथे 'भूत' शब्दसे त्रसको विशेषित करने की प्रेरणा की थी उसे असंगत बतलाते हुए यहां वादीसे पूछा गया है कि 'भूत' शब्दका प्रयोग उपमा और तादर्थ्य ( तदर्थता या तद्रूपता) इन दो अर्थों में हुआ करता है। इनमें से यदि उसका प्रयोग आपको उपमा अर्थमें अभीष्ट है तो उससे आपका अभीष्ट सिद्ध न होकर अनिष्टताका ही प्रसंग प्राप्त होनेवाला है। उदाहरणार्थ 'यह देश (लाट आदि ) सुरलोकभूत है' यहाँ उपमा अर्थमें उस भूत शब्दका उपयोग हुआ है। उससे देश कुछ स्वयं सुरलोक नहीं हो जाता। किन्तु वह ऋद्धि आदि गुणोंसे सम्पन्न होनेके कारण सुरलोकके समान है, यही अभिप्राय प्रकट होता है। इसी प्रकार प्रकृतमें भी त्रसके साथ उपमार्थक उस भूत शब्दका उपयोग करनेपर 'त्रसभूत' से जिन त्रस जीवोंके घातका प्रत्याख्यान कराना अभीष्ट है वे स्वयं त्रस न रहकर त्रस समान हो जानेसे अत्रसत्व (त्रसभिन्नता) को प्राप्त हो जावेंगे। तब उस स्थितिमें प्रकृत प्रसवधका प्रत्याख्यान अत्रसवध प्रत्याख्यानके रूपमें परिणत हो जावेगा। इस प्रकार अनिष्टका प्रसंग प्राप्त होनेपर तदनुसार प्रयोजनवश स्थावर जीवोंके घातमें प्रवृत्त होनेपर उसका वह अत्रसत्ववधनिवृत्ति व्रत अवश्य भंग हो जानेवाला है। कारण यह कि उपमार्थक उस भूत शब्दके उपयोगसे वे त्रसभूत स्थावर भी त्रस समान ( अत्रस ) सिद्ध होते हैं। इस प्रकार उनका घात होनेपर प्रसंगप्राप्त वह अत्रसवधनिवृत्ति व्रत भी सुरक्षित नहीं रह सका-भंग हो गया। यह वादीके लिए अनिष्ट प्रसंग प्राप्त होता है। इससे त्रसके साथ उपमार्थक उस भूत शब्दका उपयोग असंगत ही ठहरता है ।।१२३-२६।। अब दूसरे विकल्पमें भी दोष दिखलाया जाता है १. अत्यावरत्थाए वि पावती। २. अ अस्या गाथाया अयमुत्तरार्धभागः स्खलितोऽस्ति । ३. अ न्यायादत्र संबंधनिवृत्तौ ('उक्त' नास्ति) । ४. अ अत्र स्थावरां । ५. अ भवंति । ६. अ औपम्यः पक्षः ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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