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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१२३ - तम्हा विसेसिऊणं इय विरई इत्थ होइ कायव्वा । अब्भक्खाणं दुन्ह वि' इय करणे नावगच्छति ॥१२३॥ यस्मादेवं तस्माद्विशिष्य भूतशब्दोपादानेन । इय एवं। विरतिनिवृत्तिरत्र प्राणातिपाते भवति कर्तव्या, अन्यथा भङ्गप्रसङ्गात् । इति पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरमाह-अभ्याख्यानं तद्गुणशून्यत्वेऽपि तद्गुणाभ्युपगमलक्षणम् । द्वयोरपि प्रत्याख्यात प्रत्याख्यापयित्रोराचार्यश्रावकयोः । इयकरणे भूतशब्दसमन्वितप्रत्याख्यानासेवने । नायगच्छन्ति नावबुध्यन्ते पूर्वपक्षवादिन इति ॥१२३॥ तथा चाह ओवंमे तादत्शे व हुज्ज एसित्थं भूयसद्दो त्ति । उमओ पओगकरणं न संगयं समयनीईए ॥१२४॥ औपम्ये तायें वा भवेदेषोऽत्र प्रत्याख्यानविधौ भूतशब्द इति । उभयथापि प्रयोगकरणमस्य न संगतम् । समयनीत्या सिद्धान्तव्यवस्थयेति गाथाक्षरार्थः ॥१२४॥ भावार्थमाह ओमे देसो खलु एसो सुरलोयभूय मो एत्थ । देखें च्चिय सुरलोगो न होइ एवं तसा तेवि ॥१२५॥ ___ औपम्ये उपमाभावे भूतशब्दप्रयोगो यथा-देशः खल्वेष लाटदेशादिः ऋध्यादिगुणोपेतत्वा. सुरलोकोपमः भो इत्यवधारणार्थो निपातः-सुरलोकभूत एव । अत्रास्मिन् पक्षे। देश एव सुरलोको न भवति, तेनोपनीयमानत्वाद्देशस्य एवं प्रसास्ते ऽपि यद्विषया निवृत्तिः क्रियते ते ऽपि साना भवन्ति, त्रसभूतत्वात् सैरुपमीयमानत्वादिति ॥१२५॥ ततः किमित्याह इसलिए-उक्त दोषको दूर करनेके लिए विशेषताके साथ-'भूत' शब्दके उपादानपूर्वकत्रसभूत प्राणियोंके घातका यहां व्रत कराना चाहिए, न कि सामान्यसे त्रस प्राणियोंके घातका । इस प्रकार यहाँ तक वादोने अपने पक्षको स्थापित किया है। आगे ( १२३ उत्तरार्ध) उसका निराकरण करते हुए कहा जाता है कि ऐसा करनेपर भूत शब्दसे विशेषित उन त्रस जीवोंके घातका प्रत्याख्यान करनेपर-विवक्षित गुणसे रहित होनेपर भी उसी गुणके स्वीकार करनेरूप जिस अभ्याख्यानका प्रसंग दोनोंको-प्रत्याख्यान करनेवाले व उसके करानेवालेको प्राप्त होता है उसे वे वादी नहीं समझते हैं ॥१२३॥ आगे इसोको स्पष्ट किया जाता है यह 'भूत' शब्द या तो उपमा अर्थमें व्यवहृत होता है या तादर्थ्यमें । सो आगम व्यवस्थाके अनुसार दोनों ही प्रकारसे उसका प्रयोग करना संगत नहीं है ।।१२४॥ आगे उसके अभिप्रायको स्पष्ट किया जाता है उपमा अर्थमें जैसे—यहां यह देश निश्चित ही 'सुरलोकभूत' है। ऐसा कहनेपर वह देश ही कुछ सुरलोक नहीं हो जाता है। इसी प्रकार प्रकृतमें 'त्रसभूत' कहनेपर वे त्रस जीव भीजिनके घातका प्रत्याख्यान कराया जाता है-त्रस नहीं रहेंगे, किन्तु त्रसकी समानताको प्राप्त हो जावेंगे जो वादीको भी अभीष्ट नहीं है ।।१२५।। इससे क्या हानि होनेवाली है, इसे आगे बतलाया जाता है १. भ दोहवि । २. अ तस्माद्विशेष्य । ३. अ तादेत्थे व्व होज्ज इसोत्थ । ४. अ नीतीए । ५. भ देसे ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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