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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [१२८तादर्थ्य पुनस्तदर्थभावे पुनरेष भूतशब्दप्रयोगः, शीतीभूतमुदकमुष्णं सत्पर्यायान्तरमापन्नम् । इति निर्दिष्टस्तल्लक्षणः एवं प्रतिपादितः, तज्जात्यनुच्छेदात् अत्रापि तदुदकजात्यनुच्छेदेनैवोष्णं सच्छीतीभूतम् । न चासौ जात्यनुच्छेदस्त्रस-स्थावरयोभिन्नजातित्वादिति ॥१२७|| सिय जीवजाइमहिगिच्च अस्थि किं तीइ अपडिकुट्ठाए । भूअगहणेवि एवं दोसो अणिवारणिज्जो ओ ॥१२८।। स्याज्जीवजातिमधिकृत्यास्ति जात्यनुच्छेदः, द्वयोरपि जीवत्वानुच्छेदादित्याशङ्कयाह-कि तया जीवजात्या अप्रतिकुष्टया अनिषिद्धया, न तेन जीवजातिवधविरतिः कृता येन सा चिन्त्यते । ततश्च भूतग्रहणेऽप्येवमुक्तन्यायात् दोषोऽनिवारणीय एवेति ॥१२८।। किं च तसभूयावि तसच्चिय जं ता किं भूयसद्दगहणेणं । तब्भावओ अ सिद्धे हंत विसेसत्थभावम्मि ॥१२९॥ त्रसभता अपि वस्तुस्थित्या त्रसा एव, नान्ये । यद्यस्मादेवं तत्तस्मात् । किं भूतशब्दग्रहणेन, न किंचिदित्यर्थः । तद्भावत एवं त्रसभावत एव सिद्ध हन्त विशेषार्थभावे सपर्यायलक्षणे न हि त्रसपर्यायशून्यस्य त्रसत्वमिति ॥१२९।। किं च तादर्थ्य में उस 'भूत' शब्दका प्रयोग करनेपर जैसे 'यह शीतोभूत जल उष्ण है' ऐसा कहा जाता है, यहां जो शोतीभूत जल उष्णताको प्राप्त हुआ है उसमें जलत्व जातिका विनाश नहीं हुआ है-शीत भी जल ही था और उष्ण भी जल ही है, इस प्रकार जलपना दोनों ही अवस्थाओंमें समानरूपसे बना रहता है। इसीलिए यहाँ तादर्थ्य में उस 'भूत' शब्दका प्रयोग संगत है। वैसे ही यदि उस 'भूत' शब्दका प्रयोग प्रकृतमें त्रसके साथ किया जाता है तो यहां जातिका अविनाश सम्भव नहीं है, क्योंकि त्रस और स्थावर ये दोनों भिन्न जातियां हैं। इस प्रकार प्रकृतमें तादर्थ्यके असम्भव होनेपर त्रसके साथ उस 'भूत' शब्दका प्रयोग संगत नहीं कहा जा सकता ॥१२७|| आगे प्रकृतमें भी जातिके अविनाशविषयक शंकाको उठाकर उसका भी समाधान किया जाता है यदि कहा जाये कि प्रकृतमें भी-त्रस और स्थावर जीवोंमें भी-जीव जातिका अविनाश है हो तो इसके समाधानमें कहा जाता है कि ठीक है, उसका निषेध नहीं किया गया है, परन्तु उस अनिषिद्ध जीव जातिसे प्रकृतमें क्या प्रयोजन सिद्ध होनेवाला है? कुछ भी नहीं, क्योंकि यहां जीवजातिके वधका प्रत्याख्यान नहीं कराया गया है, किन्तु सवधका प्रत्याख्यान कराया गया है । अतएव तादर्थ्यमें भी उस 'भूत' शब्दका प्रयोग असंगत है। इस प्रकार 'भूत' शब्दके ग्रहण में भी दोषका निवारण नहीं किया जा सकता है ।।१२८॥ दूसरे भत शब्दके ग्रहण करनेपर चकि त्रसभत भी वे जीव त्रस ही तो होंगे, अन्य तो नहीं हो सकते, अतएव उस भूत शब्दके ग्रहणसे क्या लाभ है ? कारण यह कि त्रसभावसे ही जब विशेष अर्थता-त्रस पर्याय-सिद्ध है तब खेद है कि उस भूत शब्दके ग्रहणसे कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है, क्योंकि त्रस पर्यायसे रहित जीवोंमें त्रसता सम्भव नहीं है ॥१२९।। आगे प्रकारान्तरसे भी त्रस व स्थावर जीवोंमें भेदको प्रकट किया जाता है१. शेषशब्दभूतप्रयोगः । २. अं स्तल्लक्षणैरेवं । ३. अ तसावओ उ सिद्धे हित । ४. अ तद्भाव एव । ५. अ एवं सिद्धे हित वशेशार्थभावे ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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