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________________ -१२२] त्रसप्राणघातविरतो शंका-समाधानम् तसभूयपाणविरई तब्भावमि वि ने होइ भंगाय । खीरविगइपच्चक्खातदेहियपरिभोगकिरिय व्वं ॥१२२॥ त्रसभूतप्राणविरतिस्त्रसपर्यायाध्यासितप्राणवनिवृत्तिः। तद्भावेऽपि स्थावरगतव्यापत्तिभावेऽपि । न भवति प्रत्याख्यानभङ्गाय, विशेष्यकृतत्वात् । किंवत् ? क्षीरविकृतिप्रत्याख्यातदधिपरिभोगक्रियावत् । न हि क्षीरविकृतिप्रत्याख्यातुर्दधिपरिभोगक्रिया प्रत्याख्यानभङ्गाय, क्षीरस्यैव दधिरूपत्वापत्तावपि विशेष्यप्रत्याख्यानादिति ॥१२२॥ उपसंहरन्नाह त्रसभूत-त्रस पर्यायसे अधिष्ठित प्राणियोंके वधका व्रत त्रस पर्यायसे स्थावरको प्राप्त उन प्राणियोंका वध करनेपर भी विनाशके लिए नहीं होता है। जैसे दूधरूप विकार ( गोरस ) का प्रत्याख्यान करनेपर दहोरूप विकारका उपभोग करते हुए वह विनाशके लिए नहीं होता है ॥१२२॥ विवेचन-वादोका अभिप्राय यह है कि यदि सामान्यसे त्रस प्राणियोंके घातका व्रत कराया जाता है तो वैसी अवस्थामें जो द्वोद्रियादि त्रस जोव मरकर स्थावरों में उत्पन्न हुए हैं उनका आरम्भमें प्रवृत्त हुआ श्रावक घात कर सकता है । इस प्रकार स्थावर अवस्थाको प्राप्त हुए उन स जीवोंका घात होनेपर श्रावकका वह व्रत भग हो जाता है। इसके लिए नागरिकवधकी निवत्तिका उदाहरण भी है-जैसे किसीने यह नियम किया कि 'मैं किसी नागरिकका घात नहीं करूंगा'। ऐसा नियम करनेपर यदि वह नगरसे बाहर निकले हए किसी नागरिकका वध करता है तो जिस प्रकार उसका वह व्रत भंग हो जाता है उसी प्रकार जिस श्रावकने सामान्यसे 'मैं त्रस जीवोंका घात नहीं करूंगा' इस प्रकारके व्रतको स्वीकार किया है वह जब त्रस पर्याय को छोड़कर वर पर्यायको प्राप्त हए उन त्रस जोवोंका प्रयोजनके वश घात करता है तब उसका भी वह व्रत भंग होता है। और यह असम्भव भी नहीं है, क्योंकि कुछ त्रस जाव मरणको प्राप्त होकर उस त्रस पर्यायसे स्थावर पर्यायका प्राप्त हो सकते हैं। अतः सामान्यसे त्रस जीवोंके घातका व्रत कराना उचित नहीं है। तब किस प्रकारके विशेषणसे विशेषित उन त्रस जोवोंके घातका व्रत कराना उचित है, इसे स्पष्ट करता हुआ वादो कहता है कि 'भूत' शब्दसे विशेषित त्रसभूत-- त्रस पर्यायसे अधिष्ठित-उन त्रसोंके विघातका व्रत करानेपर त्रस पर्याय को छोड़कर स्थावरोंमें उत्पन्न हुए उन जोवोंका घात करनेपर भी वह उसका स्वोकृत व्रत भंग होनेवाला नहीं है। कारण यह कि तब वे त्रसभूत-त्रस पर्यायसे अधिष्ठित नहीं रहे। इसके लिए वादोके द्वारा उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य क्षोरभूत गोरसका प्रत्याख्यान करके यदि दहीका उपभोग करता है तो उसका वह व्रत भंग नहीं होता है। कारण यह कि गोरसके रूपमें दोनोंके समान होनेपर भी दही क्षीरभूत नहीं रहा । यही अभिप्राय प्रकृतमें समझना चाहिए ।।११९-२२।। आगे वादो अपने अभिमतका उपसंहार करता है तथा सिद्धान्त पक्ष द्वारा उसके निराकरणका उपक्रम किया जाता है १. अ विरउ । २. अणि.। ३. म पच्चक्खाणेद । ४. अ व्वा । ५. अख्यानाविति ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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