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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [११९ - तसपाणघायविरई तत्तो थावरगयाण वहभावा । नागरगवहनिवित्तीनायाओ केइ नेच्छंति ॥११९।। त्रेसप्राणघातविरति द्वीन्द्रियादिप्राणव्यापत्तिनिवृत्तिम् । ततस्तस्मात् त्रसकायात् । स्थावरगतानां पृथिव्यादिसमुत्पन्नानाम् । वधभावाद्वयापत्तिसंभवान्नागरकवनिवृत्तिज्ञाततो नागरकवधनिवृत्युदाहरणेन । केचन वादिनो नेच्छन्ति नाभ्युपगच्छन्तीति गाथाक्षरार्थः ॥११९॥ भावार्थ त्वाह पच्चक्खायंमि इहं नागरगवहम्मि निग्गयं पि तओ। तं वहमाणस्स न किं जायइ वहविरइभंगो उ ॥१२०॥ प्रत्याख्याते इह परित्यक्ते अत्र । कस्मिन् ? नागरकजिघांसने। निर्गतमपि निःक्रान्तमपि । ततो नगरात् । तं नागरकम् । घ्नतो व्यापादयतोऽन्यत्रापि । न कि जायते वधविरतिभङ्गः प्रत्याख्यानभङ्गो जायत एवेति ॥१२०॥ इत्थं दृष्टान्तमभिधाय अधुना दार्टान्तिकयोजनां कुर्वन्नाह इय अविसेसा तसपाणघायविरई काउ तं तत्तो। थावरकायमणुगयं वहमाणस्स धवो भंगो ॥१२१॥ इय एवमविशेषात्सामान्येनैव सप्राणघातविरतिमपि कृत्वा तं त्रसम् । ततस्त्रसकायात् द्वीन्द्रियादिलक्षणात् । स्थावरकायमनुगतं विचित्रकर्मपरिणामात्पश्चात्पृथिव्यादिषूत्पन्नम् । घ्नतो व्यापादयतो ध्र वो भङ्गोऽवश्यमेव भङ्गो निवृत्तेरिति । संभवति चैतद्यत्त्रसोऽपि मृत्वा श्रावका. रम्भविषये स्थावरः प्रत्यागच्छति, स च तं व्यापादयतीति ॥१२॥ ततश्च विशेष्यप्रत्याख्यानं कर्तव्यमनवद्यत्वादिति । आह च कितने ही वादी नागरिकवधको निवृत्तिके उदाहरणसे उस त्रस प्राणियोंके घातकी विरतिको इसलिए नहीं स्वीकार करते हैं कि उससे त्रस अवस्थाको छोड़कर स्थावरोंमें उत्पन्न हुए उन प्रस जीवों के घातकी सम्भावनासे स्वीकृत व्रत भंग हो सकता है ॥११९|| . आगे पूर्वनिर्दिष्ट उस नागरिकवधनिवृत्तिन्यायको ही स्पष्ट किया जाता है यहाँ किसीके द्वारा नागरिकवधका प्रत्याख्यान करनेपर जब नगरसे निकले हुए किसीका वह वध करता है तब क्या उसका वह वधका व्रत भंग नहीं हो जाता है ? वह भंग होता ही है ।।१२०॥ ____ अब इस दृष्टान्तको योजना दान्तके साथ की जाती है ... इस प्रकार सामान्य रूपसे त्रसप्राणघातविरतिको करके उससे-द्वोन्द्रियादिरूप त्रस प.यिसे-स्थावरकायको प्राप्त हुए उस त्रसका घात करते हुए श्रावकका वह व्रत निश्चित हो भंग होता है ।।१२१॥ इसलिए वादीके अभिमतानुसार विशेषित करके प्रत्याख्यान करना चाहिए, तभी वह निर्दोष रह सकता है । किस प्रकारसे विशेषित करे, इसे वह आगे स्पष्ट करता है १. भणेच्छंति । २. अ तत्र प्राण । ३. अ ततस्त्रस ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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