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________________ श्रावकप्रज्ञप्तिः [११४ तद्ग्रहणत एव विधिना गुरुसन्निधौ व्रतग्रहणादेव । तको जायते कालेन असौ देशविरतिपरिणामो भवति कालेन तत् गुरुसन्निधिकारणत्वादित्यर्थः। किविशिष्टस्य ? अशठभावस्य श्राद्धस्य सत्वस्य । शठविषयं दोषमाशङ्कयाह-इतरस्य शठस्य' न देयमेव-व्रतम्, अस्थानदाने भगवदाशातनाप्रसङ्गात् । तदज्ञानविषयं दोषमाशङ्कयाह-शुद्धः छलितोऽपि यतिरशठः छद्मस्थप्रत्यपेक्षणयाँ कृतयत्नो मायाविना कथंचिद्वयंसितोऽपि विप्रतारितोऽप्याजवः साधुरदोषवानेव, आज्ञानतिक्रमादिति ॥११३॥ अपरस्त्वाह थलगपाणाइवायं पच्चक्खंतस्स कह न इयरंमि । होइणमइ जइस्स वि तिविहेण तिदंडविरयस्स ॥११४॥ स्थूरकप्राणातिपातं द्वीन्द्रियादिप्राणजिघांसनम् । प्रत्याचक्षाणस्य तद्विषयां निवृत्ति कार. यतः । कथं नेतरस्मिन् कथं न सूक्ष्मप्राणातिपाते। भवत्यनुमतिर्यतेर्भवत्येवेत्यभिप्रायः। किं. विशिष्टस्य यतेस्त्रिविधेन त्रिदण्डविरतस्य मनसा वाचा कायेन सावधं प्रति कृत-कारितानुमति विवेचन-इन सबका अभिप्राय यह है कि आचार्यके समीपमें विधिपूर्वक व्रतके ग्रहण करने पर उसका परिपालन दृढ़ताके साथ होता है। साथ ही जिनागमका जो यह विधान है कि गुरुकी साक्षीमें व्रतको ग्रहण करना चाहिए, उसका अनुसरण करनेसे जिनदेवके प्रति श्रद्धाभाव भी प्रगट होता है। इस सरल परिणतिके कारण बाधक कर्मका कुछ विशेष क्षयोपशम भी होता है। यदि कदाचित् व्रतको स्वीकार करनेवालेका उसके पालनका परिणाम भी न हो तो भी यदि वह सरलहृदय है तो गुरुकी समीपतामें ग्रहण करनेसे कभी उसका परिणाम भी उसके पालनका हो सकता है। हां, यदि वह धर्त है और गरुको उसकी धर्तताका पता लग जाता है तो निश्चित ही उसे व्रत नहीं ग्रहण कराना चाहिए, अन्यथा जिनकी आशातना प्रसंग दुनिवार होगा। पर यदि सरल हृदय साधुको उसकी धूर्तताका पता नहीं चलता है तो व्रतके ग्रहण करानेमें वह विशुद्ध परिणामवाला होनेके कारण दोषका भागी नहीं होता। इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणसे इतने लाभके होनेपर गुरु व शिष्यको इस प्रक्रियाको न तो व्यर्थ ठहराया जा सकता है और न उनके इस विशुद्ध आचरणमें असत्यवादका भी प्रसंग दिया जा सकता है ॥१११-१३।।. इस प्रसंगमें अन्य कोई शंका करता है जो यति तीन प्रकारसे त्रिदण्डसे विरत है-मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनसे पापका परित्याग कर चुका है-वह जब किसीको स्थूल प्राणियोंके प्राणविघातका प्रत्याख्यान कराता है तब उसकी अनुमति इतरमें-स्थूल प्राणियोंसे भिन्न सूक्ष्म प्राणियोंके विघातमें-कैसे अनुमति न होगी? विवेचन-जो महाव्रती मुनि मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे स्वयं समस्त सावध कर्मका परित्याग कर चुका है वह यदि किसीको स्थूल प्राणियोंके विघातका व्रत ग्रहण कराता है तो उससे यह सिद्ध होता है कि उसकी सूक्ष्म प्राणियों के विघातविषयक अनुमति है । अन्यथा वह स्थूलोंके साथ सूक्ष्म प्राणियोंकी भी हिंसाका परित्याग क्यों नहीं कराता। १. भइतरशठस्य । २. अ प्रसंगात् विषमाशंक्याह । ३. यतिरशब्दः छद्मस्थ्यप्रपेक्षणया। ४. अहोयणमतो जइस्सा तिविहेण । ५. अभवत्यनुमतिर्भवत्ये।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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