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________________ ७९ - ११३ ] स्थूलप्राणातिपातप्रत्याख्याने शंका-समाधानम् संते विय परिणामे गुरुमूलपवज्जणंमि एस गुणो। दढया आणाकरणं कम्मखओवसमवुड्ढी य ॥१११॥ सत्यपि च परिणाम देशविरतिरूपे। गुरुमूलप्रतिपादने आचार्यसन्निधौ प्रतिपत्तिकरणे । एष गुण एषोऽभ्युच्चयः । यदुत दृढता तस्मिन्नेव गुणे दाढयं । तथाज्ञाकरणं अहंदाज्ञासंपादनम्, यतस्तस्यैष उपदेशो गुरुसन्निधौ व्रतग्रहणं कार्यमिति । तथा कर्मक्षयोपशमवृद्धिश्च तथाकरणे दाढििसंपादनशुभपरिणामतः अधिकतरक्षयोपशमोपत्तेरिति ॥१११॥ इय अहिए फलभावे न होइ उभयपलिमंथदोसो उ । तयभावम्मि वि दुन्हवि न मुसावाओवि गुणभावा ॥११२॥ इय एवमधिके फलभावे पूर्वावस्थातः अभ्यधिकतरायां फलसत्तायाम्, न भवति न जायते। उभयपलिमन्थदोषः शिष्याचार्ययोर्नुधाव्यापारदोष इत्यर्थः । एवं परिहृतः प्रथमो विकल्पः। द्वितीयमधिकृत्याह-तदभावेऽपि देशविरतिपरिणामाभावेऽपि । द्वयोरपि प्रत्याख्यात-प्रत्याख्यापयित्रोर्गुरु-शिष्ययोः। न मृषावादोऽपि प्राक्चोदितः । कुतो गुणभावाद्गुणतंभवादिति ॥११२।। गुणभावमेवाह तग्गहणउ च्चिय तओ जायइ कालेण असठभावस्स । इयरस्स न देयं चिय सुद्धो छलिओ वि जइ असढो ॥११३॥ शिष्यके देशविरतिके पालनका परिणाम होनेपर भी गुरुके समीपमें उसे स्वीकार करनेपर यह गुण ( लाभ ) है-ऐसा होनेपर उक्त व्रतके परिपालनमें दृढ़ता होती है, साथ ही उससे जिनाज्ञाका भी पालन हो जाता है। कारण यह कि 'गुरुके समीपमें ही व्रतको स्वीकार करना चाहिए' ऐसी जिनागमकी आज्ञा है। इसके अतिरिक्त दृढ़तापूर्वक व्रतके पालन करने और उस जिनाज्ञाका सम्पादन करनेसे कर्मके क्षयोपशममें वृद्धि भी होती है ॥११॥ इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणके लाभको दिखलाकर आगे शंकाकारके द्वारा निर्दिष्ट गुरु व शिष्य दोनोंके उस व्यापारको निरर्थकता व असत्यभाषण दोषोंका निराकरण किया जाता है ___ इस प्रकार गुरुके समीपमें व्रतके ग्रहणसे अधिकतर फलके सद्भावमें गुरु व शिष्य दोनोंके उस व्यापारको निरर्थकताका वह दोष प्रकृतमें सम्भव नहीं है। व्रतपरिपालनपरिणामके न होनेपर जो दूसरे पक्षमें दोनोंके लिए असत्यवादका दोष प्रकट किया गया था वह भी सम्भव नहीं है। कारण यह कि गरुके समोपमें व्रतके ग्रहणसे गणको ही सम्भावना विशेष है, इसीलिए दोनोंके उस कार्यको असत्यतापूर्ण नहीं कहा जा सकता ।।११२॥ आगे वह गुण कौन-सा है, इसे ही स्पष्ट किया जाता है यदि व्रतको ग्रहण करनेवाला श्रावक शठता ( धूर्तता ) से रहित है तो विधिपूर्वक गुरुके समीपमें उसके ग्रहणसे ही समय पाकर उसके उस स्वीकृत व्रतके पालनका वह परिणाम भी हो सकता है। इतरको-शठतासे युक्त धूर्त व्यक्तिको व्रतका देना अवश्य योग्य नहीं है। पर यदि कोई धूर्त प्रत्याख्यान करानेवाले सरल हृदय साधुको धोखा देता है तो भी वह साधु शठतासे रहित होनेके कारण शद्ध ही है-उसे व्रतके देने में कोई दोष नहीं है। १. मु. दृढया । २. अ दोहवि । ३. अMपाध्याव्यार ।
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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