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________________ - ११५ ] स्थूलप्राणातिपातप्रत्याख्याने शंका-समाधानम् ८१ विरतस्य । तथा चान्यत्रापि निषिद्ध एव यतेरेवं जातीयोऽर्थः । यत उक्तम्- 'माणुमती केरिसा तुम्हे ति ॥११४॥ अत्रे गुरुराह - afaate हो चि विहीर नो सुयविसुद्धभावस्स । गाहावसु अचोरग्गहण - मोअणा इत्थ नायं तु । ११५ ॥ अविधिना भवत्येव अणुव्रतग्रहणकाले सम्यगनाख्याय संसारासारताख्यापनपुरःसरं साधुधमं प्रमादतोऽणुव्रतानि यच्छतो भवत्येवानुमतिः । विधिना पुनः साधुधमंकथनपुरःसरेण । नेति न भवत्यनुमतिः । किविशिष्टस्य ? श्रुतविशुद्धभावस्य तत्त्वज्ञानान्मध्यस्थस्येत्यर्थः । अस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह - गृहपतिसुत चोरग्रहण-मोचना अत्र ज्ञातमिहे उदाहरणमित्यर्थः । तच्चेदम् वसंतउरं नगरं जियसत्तू राया, धारिणी देवी, दणट्ठातिसएग (?) परितुट्ठो से भत्ता । इस प्रकार सूक्ष्म प्राणियोंकी हिंसाविषयक अनुमति के होनेपर उसका महाव्रत भंग होता है । यह interest अभिप्राय है ॥ ११४ ॥ आगे इस शंकाका समाधान किया जाता है यदि स्थूल प्राणियोंके घातका प्रत्याख्यान करानेवाला वह यति आगमोक्त विधिके बिना उसे उसका प्रत्याख्यान कराता है तो निश्चित ही उसकी सूक्ष्म प्राणियोंके घातमें अनुमति होती है । पर श्रुतसे विशुद्ध अन्तःकरणवाला वह यदि विधिपूर्वक ही उसे उसका प्रत्याख्यान कराता है तो सूक्ष्म प्राणियों के घातमें उसकी अनुमति नहीं हो सकती । यहाँ चोरके रूपमें पकड़े गये गृहपति के पुत्रोंके ग्रहण और मोचनका उदाहरण है । विवेचन - प्रत्याख्यान करानेकी सामान्य विधि यह है कि जो आत्महितैषी व्रतको ग्रहण करना चाहता है उसे आचार्य प्रथमतः संसारको असारताको दिखलाकर साधुधर्मका उपदेश दे । इसपर यदि व्रतग्रहणका इच्छुक श्रावक साधुधर्मके ग्रहण में अपनी असमर्थताको प्रकट करता है तो फिर उस स्थिति में उसे अणुव्रतोंका उपदेश देकर प्रथम अणुव्रतको ग्रहण कराते हुए स्थू प्राणियों की हिंसाका परित्याग करावे । इस विधिके अनुसार ही यदि आचार्य प्रथम अणुव्रत में प्राणियोंको हिंसाका परित्याग कराता है तो उसकी सूक्ष्म प्राणियोंके घातमें अनुमति नहीं हो सकती । पर यदि वह इस प्रत्याख्यान विधिकी उपेक्षा कर उसे प्रारम्भमें ही अणुव्रतोंका उपदेश देते हुए स्थूल प्राणियोंकी हिंसाका परित्याग कराता है तो उसके लिए अवश्य हो उस सूक्ष्म जीवों घातविषयक अनुमतिका प्रसंग प्राप्त होता है । आचार्य अमृतचन्द्रने प्रथमतः मुनिधर्मका उपदेश न देकर गृहस्थधर्मंका उपदेश करनेवाले साधुको अल्पबुद्धि कहकर उसे निग्रहका पात्र बतलाया है ( पु. सि. १७-१८ ) । विधिपूर्वक स्थूल जीवोंकी हिंसाका प्रत्याख्यान करानेवाले आचार्यकी अनुमति सूक्ष्म प्राणियों के घातमें कैसे नहीं होती है, इसके स्पष्टीकरण में यहाँ एक सेठके छह पुत्रों का उदाहरण दिया जाता है जो चोरीके अपराधमें पकड़े गये थे व जिनमें से एक बड़े पुत्र को ही सेठ छुड़ा सका था। वह कथा इस प्रकार है वसन्तपुर नगर में एक जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम १. अ 'अत्र' नास्ति । २. अ मोचनार्थ ज्ञातमिह । ३. अ देवी गट्ठा तुसिएण परितुट्ठा । ११
SR No.022026
Book TitleSavay Pannatti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhadrasuri, Balchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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